हमने आजादी के साथ ही भारतीयता के चोले को उतारना शुरू कर दिया। विज्ञान को ही विकास के आधार का करार मान लिया। अंग्रेजी की अंगुली पकड़ी और निकल पड़े आधुनिक होने। आज चौबे जी न छब्बे जी बन पाए, न ही दुब्बे जी ही रह सके। ऋषियों की सारस्वत ज्ञान साधना, वैश्विक दृष्टि, सरस्वती तक को हम लक्ष्मी के गिरवी रख बैठे, जो स्वयं जड़ हैं। वैभव, विकास जड़ है। इसके पीछे हम अपनी चेतना खो बैठे।
बस शरीर जी रहा है, आत्मा को तो हम उपलब्ध ही नहीं हैं। तब मेरे भीतर बैठा ईश्वर दूसरों के भीतर कहां दिखाई पड़ेगा। बस, भारत बिखर गया। इसका स्वरूप खो गया। हमारे ऋषियों ने प्राचीन ग्रन्थों में कोरोना जैसी आपदाओं से बच निकलने के लिए कई गुर दिए हैं। हमें उन पर विश्वास क्यों नहीं होता! विकास के सारे काल्पनिक एवं बौद्धिक सपने आज ढह गए। नकली धनवान धराशायी होते जा रहे हैं। सारी विकास की अवधारणाएं-वैश्वीकरण, विशेषज्ञ ज्ञान, उपभोक्तावाद, भौतिकवाद, विकासवाद तक ध्वस्त हो गए। क्योंकि इनमें कहीं मानवता का आधार नहीं था, आस्तिक भाव नहीं था, आध्यात्मिक चिंतन नहीं था। केवल मानव का जड़ शरीर (पशु) ही था और उसका सुख ही विकास का लक्ष्य था। आज मानवता लुट रही है। सिंह दृष्टि वाले भारत ने नकल में श्वान दृष्टि ग्रहण कर ली। इसी ने हमारी हस्ती मिटा दी।
युवाओं के सपने लुट रहे हैं, जो कि शिक्षा ने दिखाए हैं। काल्पनिक सिद्ध हुए। संकट की घड़ी में स्वयं शिक्षा के कठघरे में खड़े हैं। हमारी सामाजिक-आर्थिक सुरक्षा ढांचे की पोल खुल गई। हम गुलामों की तरह लाचार खड़े हैं। कोई मार्ग नहीं सूझ रहा। शिक्षा ने मार्ग निकालना सिखाया ही नहीं। समग्रता की शिक्षा, अध्यात्म-चेतना के जागरण की शिक्षा गांवों से भी उठ गई। संकट के काल में कोई न अपनी मदद कर पा रहा है। न दूसरों की।
आज पुन: भारतवासी गांव की ओर मुड़ा है। फिर से ताजा होगा। विकास के नाम जो कृषि एवं पशुपालन आज जहर उगल रहा है, अब फिर से अमृत वर्षा करेगा। नया भारत उभर रहा है। नया अर्थशास्त्र बनेगा। शहरों और अट्टालिकाओं से उसका मोह भंग हो गया। वैराग्य छा गया उसके मन में मायावी मुखौटों की चकाचौंध से। अब नए सिरे से गांव की माटी की गंध सूंघेगा। हमें इसका स्वागत करना चाहिए।