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चुनौती सबको साथ लेकर चलने की

बड़ा सवाल उठता है कि पंजाब में यह करिश्मा क्यों नहीं दिखाई दिया? हमें यह समझना चाहिए कि भाजपा ने पंजाब में शिरोमणि अकाली दल के साथ समझौता कर रखा है।

Mar 15, 2017 / 01:52 pm

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) को जो ऐतिहासिक विजय उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड में मिली है, उसको देखकर यूं कहना होगा कि इसने 2019 के लोकसभा चुनावों के लिए जमीन तो तैयार कर ही दी है। 
लेकिन, यह कहना बेमानी है कि इस जीत का लाभ उसे राष्ट्रपति चुनाव ही नहीं राज्यसभा चुनावों में मिलने वाला है। मौका मिला है तो वह इसका लाभ तो लेगी ही। नि:संदेह यह मोदी लहर ही है जिसने यह साबित कर दिया कि उत्तर भारत में अब भी यह बरकरार है।
बड़ा सवाल उठता है कि पंजाब में यह करिश्मा क्यों नहीं दिखाई दिया? हमें यह समझना चाहिए कि भाजपा ने पंजाब में शिरोमणि अकाली दल के साथ समझौता कर रखा है। पंजाब में इस दल के (कु)शासन का दंश भाजपा को झेलना पड़ रहा है। 
दरअसल भाजपा यह दर्शाना चाहती है कि सत्ता से दूर रहने पर भी वह अपने सहयोगी दलों के साथ है इसीलिए पंजाब को उसने अकाली दल के लिए छोड़ रखा था। फिर बड़ी बात यह भी कि राज्यसभा में उसे अकाली दल सहित अन्य सहयोगी दलों की आवश्यकता रहने वाली है। 
राज्यसभा और वृहद राष्ट्रीय राजनीतिक परिप्रेक्ष्य में वह पंजाब विधानसभा का नुकसान भी उठाने के तैयार है। रही बात, मणिपुर की तो भाजपा की दीर्घकालीन रणनीति के तहत वह पूर्वोत्तर के राज्यों में अपनी पैठ बनाने की फिराक में है। चाहे मणिपुर हो या असम या फिर अरुणाचल प्रदेश उसकी निगाह केन्द्र में सत्तासीन होने के साथ ही पूर्वोत्तर के राज्यों पर रही है। 
भाजपा हर हाल में इन राज्यों में सरकार चाहती है। इसकी तैयारियां काफी पहले से शुरू गई थीं। कोरी 2019 के लोकसभा चुनावों की जमीन की तैयारी ही नहीं भाजपा की निगाहें 2024 के चुनावों पर भी है। नरेंद्र मोदी खुद संगठनात्मक स्तर पर लंबे समय काम कर चुके हैं और उत्तर प्रदेश में उनके सहयोगियों ने बूथ स्तर तक के प्रबंधन को मजबूत किया। 
इस बात का विशेष ध्यान रखा गया कि मतदाता सूची में कौन हट रहा है और कौन जुड़ रहा है? कौन मतदाता है और कौन नहीं? इसका लाभ उसे मिला। फिर, प्रधानमंत्री मोदी जब सक्रिय होते हैं तो वे एक उम्मीद जगाने का काम करते हैं। उनके सामने असल चुनौती तो उम्मीदों पर खरा उतरने की है। भाजपा की नजरें अब कर्नाटक, तमिलनाडु पर भी है। 
वह उत्तर भारत का गढ़ तो जीत चुकी है और पूरब और दक्षिण के लिए तैयारी शुरू कर चुकी है। पश्चिम बंगाल में उसका मुकाबला चाहे ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस से हो या वामपंथी दलों से वह पूर्वोत्तर के सहारे वहां पैठ बनाना चाहती है। 
उत्तर प्रदेश-उत्तराखंड की जीत ने भाजपा को उत्साह से लबरेज कर दिया है। प्रधानमंत्री मोदी कहते भी हैं कि हर चुनाव एक चुनौती है लेकिन उत्तर प्रदेश का अनुभव गुजरात चुनाव में काम आने वाला है। बड़ी चुनौती गुजरात होगा जिसके लिए कहा जाता है कि वह पीएम के लिए घर में सजी थाली के समान है। वहां थोड़ा बहुत असंतोष होगा भी तो उसका प्रबंध समय पर कर लिया जाएगा। 
वर्तमान में तो उसे उत्तर प्रदेश में भ्रष्टाचार मुक्त व युवाओं को रोजगार उपलब्ध कराने वाली सरकार देनी है। इसका असर आगे के चुनावों पर पड़ऩे वाला है। यदि सरकार ऐसा करने में सफल रहती है तो गुजरात ही नहीं, आगामी चुनावों में राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीगढ़ में मोदी लहर ही दिखाई दे तो कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए। 
उत्तराखंड में भाजपा ने भले ही बड़ा बहुमत हासिल कर लिया हो लेकिन वहां की प्राकृतिक विपदाएं और दलबदल की राजनीति से पार पाना उसके लिए बड़ी चुनौती साबित होगी। ऐसा लगता है कि सरकार ने इन चुनौतियों से पार पाने के लिए अभी से पेपरवर्क कर लिया होगा। 
पेपरवर्क तो मध्यप्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ के लिए भी हो चुका होगा हालांकि इन राज्यों में क्षेत्रीय दलों की चुनौती भाजपा के समक्ष नहीं होगी। उत्तर प्रदेश में क्षेत्रीय दल काफी हद तक सिमट कर रह गए हैं। फिलहाल उनकी राजनीति समाप्त हो गई, ऐसा नहीं कहा जा सकता। 
यदि वे स्थानीय स्तर पर अपने दायरे की राजनीति यानी किसानों और मजदूरों की समस्याओं पर काम करें तो आगे भी बने रहेंगे वर्ना अजित सिंह की पार्टी जैसा ही उनका हश्र होने वाला है। समझना चाहिए कि जातिगत राजनीति और परिवारवाद की राजनीति लंबे समय तक नहीं चल सकती, विकास से संबंधित असल मुद्दों पर काम तो करना ही पड़ता है। 
हालांकि लोकतंत्र के लिए यह बहुत अच्छा नहीं कहा जा सकता कि भाजपा जैसी पार्टी ने उत्तर प्रदेश में एक भी मुस्लिम को सीट पर खड़ा नहीं किया लेकिन यह उसकी रणनीतिक सफलता भी रही। भाजपा मतों के ध्रुवीकरण में सफल भी रही लेकिन अब उसके सामने चुनौती यही है कि वह अल्पसंख्यकों को साथ लेकर कैसे चलती है? उनकी अपेक्षाओं पर ख्ररी कैसे उतरती है? 
अब तक उसने एक संप्रदाय विशेष को यह जताने की कोशिश की है कि वह उसके साथ खड़ी है लेकिन अब चुनौती यही है कि एक समुदाय विशेष से जो कुछ कहा है उस पर खरा उतरा जाए या फिर सबको साथ लेकर चला जाए। भाजपा कैसे सबको साथ लेकर चल पाती है? 
अल्पसंख्यकों के साथ उसका व्यवहार कैसा रहता है, यह उसके कामकाज से स्पष्ट होगा। भाजपा को अभी कई मोर्चों पर काम करना है ताकि जीत का यह माहौल आगामी चुनावों में भी बरकरार रह सके। 

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