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बदलता लोकतंत्र

नए गठबंधन, नए समीकरण एक ओर चर्चा में आ रहे हैं, वहीं “कांग्रेस मुक्त भारत” अभियान दूसरी ओर हिलोरे ले रहा है। भाजपा सत्ता में है, निश्चिंत है। उसे कहीं कोई खतरा दिखाई नहीं पड़ रहा।

Jun 23, 2018 / 09:52 am

Gulab Kothari

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पिछले सत्तर वर्षों की राजनीति में जनता ने सभी दलों को फेल कर दिया। ये अलग बात है कि जो दल सत्ता में रहता है, वह ज्यादा गुर्राता है। पिछले गुजरात और कर्नाटक के विधानसभा चुनावों, लगभग सभी राज्यों में हुए उपचुनावों में, जम्मू और कश्मीर में जो कुछ परिणाम सामने आए वे लोकतंत्र का मुंह चिढ़ाने वाले अधिक थे। दल सत्ता हासिल करने के लिए शत्रुओं की तरह लड़ाई कर रहे थे। सामन्ती युग के राजाओं की तरह एक-दूसरे को मिटाने पर तुले हुए थे। कोई अपनी बात नहीं करता, सामने वाले को कोसता ज्यादा है, मानो वह अस्तित्व में ही क्यों है। मर क्यों नहीं जाता। यह हमारे वर्तमान लोकतंत्र का जानलेवा स्वरूप है। जीतने के बाद किसी भी दल को न जनता याद रहती है, न ही चुनावी वादे। देशभक्ति और राष्ट्रीय संप्रभुता की बातें इतिहास में दब गई। देश में आज चारों ओर जो हो रहा है, किसको दिखाई नहीं दे रहा।
राजस्थान, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और हरियाणा के विधानसभा चुनाव सिर पर हैं। नए गठबंधन, नए समीकरण एक ओर चर्चा में आ रहे हैं, वहीं “कांग्रेस मुक्त भारत” अभियान दूसरी ओर हिलोरे ले रहा है। भाजपा सत्ता में है, निश्चिंत है। उसे कहीं कोई खतरा दिखाई नहीं पड़ रहा। कांग्रेस पूरा दम लगाकर भी गुजरात और कर्नाटक में जीत दर्ज नहीं करा पाई। ठीक यही परिणाम आगे भी आने वाले हैं। सीटों का अनुपात भी लगभग वही रहेगा। कर्नाटक में तो कांग्रेस को तिनके का सहारा मिल गया। राजस्थान, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में तो ऐसा विकल्प मिलने वाला नहीं है। सभी तालाब सूखे पड़े हैं। अधिकांश दिग्गज पिछले चार सालों में धराशायी हो चुके हैं। फिर भी कांग्रेस को लग अवश्य रहा है कि सत्ता विरोधी हवा उन्हें सहायता कर देगी। कुछ नेता टर्र-टर्र करते सुनाई भी देने लगे हैं।
इन राज्यों में चुनाव (लड़ाई नहीं) चूंकि दो दलों के बीच ही होना है, और उनमें से एक दल सत्ता में हैं। अत: सारी तैयारियां केवल कांग्रेस को ही करनी है। यहां नेता अधिक और कार्यकर्ता कम हैं। काम करो, न करो, उनको तो कुर्सी दिखाई पड़ रही है। हर बार वे गलतफहमी के शिकार हो जाते हैं। सत्ता छूट जाती है। गुजरात चुनाव पूर्व उनको गठबंधन का ऑफर मिला था, नहीं स्वीकार किया। कर्नाटक में छोटे दल के आगे झुकना पड़ा। अब फिर दिल्ली में नए ऑफर को बड़ी अकड़ के साथ नकारा जा रहा है। जहां उसके पैरों तले जमीन ही नहीं है। दूसरी और कांग्रेस ने बसपा से गठबंधन की राह खोली है। तीनों राज्यों की ५२० सीटों में से बसपा को १८ सीटें देना चाहते हैं। बसपा ३० सीटों की मांग कर रही है।
प्रश्न यह है कि गठबंधन का कारण और लक्ष्य ही स्पष्ट नहीं हो रहे। क्या बसपा सभी सीटों पर चुनाव जीतकर भी कांग्रेस को बहुमत में लाने लायक मानती है। पिछले चुनावों में उसने छह सीटें जीती थीं राजस्थान में। इस बार यह भी खटाई में पड़ गई। इस गठबंधन का कोई सींग-पूछ ही समझ में नहीं आता। यही कांग्रेस की राष्ट्रीय समझ का उदाहरण भी है। कांग्रेस के नेता वस्तुस्थिति से बहुत दूर हैं। न जनमानस को जान पा रहे हैं, न ही कुछ नया करने की तैयारी है। देश को सशक्त विपक्ष की जरूरत है। देश के समक्ष भी कांग्रेस के अलावा विकल्प नहीं है।
देश न दलित है, न समझ से गरीब। आज के युवा को डण्डे से नहीं हांक सकते। नोटबंदी, बेरोजगारी, पेट्रोल के दाम, महंगाई ने भले ही उसे मार रखा है, किन्तु जो कांग्रेस अपनी स्थिति नहीं संभाल सकती, उस पर वे भरोसा कैसे कर लेंगे? आवश्यकता है कि समय रहते कांग्रेस स्वयं के बजाय देश की चिंता दिखाए। अहंकार छोडक़र कुछ कर गुजरने का विश्वास दिलाए, देश को नेतृत्व देने की क्षमता पर मंथन करे। यों ही कोई प्रधानमंत्री नहीं बन जाएगा। अभी तो एक भी प्रदेश आता हुआ दिखाई नहीं पड़ता।

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