इस तथ्य से इनकार नहीं किया जा सकता कि तमाम सरकारी दावों के बावजूद जवानों को विषम परिस्थितियों में काम करना ही पड़ता है। जवानों से 12-14 घंटे काम लेने व उन्हें छुट्टियां नहीं मिलने की समस्या पुरानी है। सरकारें आईं और चली गईं। सबने जवानों को मिलने वाले वेतन-सुविधाएं बढ़ाने की बात की लेकिन दावे और जमीनी हकीकत का अंतर लगातार बढ़ता जा रहा है। ऐसा क्यों हो रहा है?
सवाल जितना आसान है, उसका जवाब उतना ही कठिन। इन सवालों का जवाब न प्रधानमंत्री के पास है और न रक्षा मंत्री या गृह मंत्री के पास। न ही सीमा सुरक्षा बल अथवा ऐसे ही दूसरे संगठनों में तैनात आला अफसरों के पास। सरकार की तरफ से यदि जवानों को पर्याप्त राशन दिया जाता है तो ये राशन उन तक पहुंचता क्यों नहीं? क्यों एक जवान को वीडियो के जरिए अपनी व्यथा सार्वजनिक करनी पड़ी? शिकायतकर्ता जवान के खिलाफ तमाम आरोप हो सकते हैं। वह सजायाफ्ता भी हो सकता है?
फिर भी उसे पर्याप्त राशन नहीं मिल रहा तो इन आरोपों को हवा में नहीं उड़ाया जा सकता। बारह-चौदह घंटे काम के बावजूद जरूरत के समय भी छुट्टियां न मिले तो जवानों में गुस्सा स्वाभाविक है। लेकिन गुस्सा ऐसा कि जवान अपने ही साथियों की जिंदगी ले बैठे?
उन साथियों की जो दिन-रात साथ रहकर मोर्चे पर डटे रहते हैं। ये घटना ना तो मामूली हैं और न पहली बार हुई है। घटना जितनी गंभीर है, उसका समाधान भी उसी गंभीरता से तलाशा जाना चाहिए। आखिर देश की अस्मिता से जुड़ा है यह मुद्दा।