दूसरी ओर, भाजपा सरकार चाहती तो मामूली संशोधन कर इस मुद्दे पर विपक्ष की सहमति ले सकती थी। चूंकि दोनों पक्षों को इसका राजनीतिक लाभ लेना था, इसलिए सहमति बनाने की ईमानदार कोशिश नहीं की गई। अब अध्यादेश जारी कर भाजपा अधिकारों के प्रति सजग मुस्लिम महिलाओं में अपने लिए ‘सॉफ्ट कॉर्नर’ बनाने में जरूर सफल होगी। दरअसल, इस मामले में भाजपा के पास खोने को कुछ भी नहीं था, जबकि कांग्रेस को परंपरागत मुस्लिम वोट बैंक गंवाने का डर सता रहा था। राजनीतिक दलों के लिए यह मामला अध्ययन का विषय होना चाहिए कि प्रगतिशीलता और पुरातनपंथी दोनों लंबे समय तक साथ-साथ नहीं चल सकते। दोनों नावों की सवारी कांग्रेस दशकों से करती रही है।
पिछले 70 सालों में कांग्रेस से जहां-जहां चूक हुई है, वहीं से अब भाजपा ऑक्सीजन ले रही है। इसका अर्थ यह नहीं है कि भाजपा प्रगतिशीलता की झंडाबरदार बन गई है। ऐसा तभी माना जाएगा जब अपने परंपरागत वोट बैंक हिंदू समाज की कुरीतियों के खिलाफ भी उसकी ऐसी ही सक्रियता दिखेगी। फिलहाल ऐसे लक्षण नहीं दिखते। इतना जरूर है कि बड़ी चालाकी से भाजपा उन मुद्दों पर प्रगतिशीलता दिखा रही है, जहां गंवाने के लिए कुछ नहीं, पर हासिल जरूर हो सकता है। तीन तलाक के अतिरिक्त, मुस्लिम महिलाओं की ***** प्रथा दूसरा ऐसा मुद्दा है।
अच्छा तो यही होता कि अपनी कुरीतियों के खिलाफ समाज ही सामने आता और सुधार करता। इस पर न तो अदालत को दखल देना पड़ता और न ही दलों को राजनीति करने का मौका मिलता। दुर्भाग्य से यह सामाजिक-सांस्कृतिक प्रक्रिया ठहर-सी गई है। जब कानून के हथौड़े से ऐसा किया जाएगा तो किसी-न-किसी को चोट तो लगेगी ही। पुरुष प्रधान मुस्लिम समाज के कथित ठेकेदारों ने तीन तलाक के अध्यादेश का विरोध करना शुरू कर दिया है। उनके दबाव में कुछ मुस्लिम महिलाएं भी आपत्ति जताती दिखती हैं। इसमें कोई दो राय नहीं हो सकती कि तीन तलाक और पर्दा प्रथा जैसी कुरीतियों ने समाज को काफी पीछे कर दिया है। पर्दे के पीछे छिपे चेहरे पर तीन तलाक के अध्यादेश के बाद निश्चित ही मुस्कराहट होगी कि राजनीति ही सही, पर इस अभिशाप से मुक्ति का मार्ग तो प्रशस्त हुआ।