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अध्यादेश का दांव

दोनों नावों की सवारी कांग्रेस दशकों से करती रही है। पिछले 70 सालों में कांग्रेस से जहां-जहां चूक हुई है, वहीं से अब भाजपा ऑक्सीजन ले रही है।

जयपुरSep 21, 2018 / 09:53 am

सुनील शर्मा

rahul gandhi

rahul gandhi, congress

मुस्लिम समाज में तीन तलाक की कुप्रथा को अपराध घोषित करने के लिए अध्यादेश का रास्ता अपनाकर भाजपा सरकार ने एक ऐसा सियासी दांव खेला है जिसका तोड़ कांग्रेस शायद ही निकाल पाए। हालांकि सुप्रीम कोर्ट तीन तलाक को पहले ही असंवैधानिक मान चुका है और सरकार के पास इसे कानूनी जामा पहनाने के अलावा कोई रास्ता भी नहीं था। कांग्रेस की अदूरदर्शिता ने भाजपा को इसका राजनीतिक लाभ लेने का मौका दे दिया। मुस्लिम महिला (वैवाहिक अधिकार संरक्षण) विधेयक-2017 को कांग्रेस ने जिस तरह संसद में अटकाने की कोशिश की उसने ‘खिसियाई बिल्ली खंभा नोचे’ कहावत को ही चरितार्थ किया। सिर्फ इस आधार पर कि गुजारा भत्ता न दे पाने की स्थिति में पति की संपत्ति को बेचकर ऐसा करने का प्रावधान विधेयक में नहीं है, इसलिए यह अमानवीय है, गले से उतरने वाला तर्क नहीं है।
दूसरी ओर, भाजपा सरकार चाहती तो मामूली संशोधन कर इस मुद्दे पर विपक्ष की सहमति ले सकती थी। चूंकि दोनों पक्षों को इसका राजनीतिक लाभ लेना था, इसलिए सहमति बनाने की ईमानदार कोशिश नहीं की गई। अब अध्यादेश जारी कर भाजपा अधिकारों के प्रति सजग मुस्लिम महिलाओं में अपने लिए ‘सॉफ्ट कॉर्नर’ बनाने में जरूर सफल होगी। दरअसल, इस मामले में भाजपा के पास खोने को कुछ भी नहीं था, जबकि कांग्रेस को परंपरागत मुस्लिम वोट बैंक गंवाने का डर सता रहा था। राजनीतिक दलों के लिए यह मामला अध्ययन का विषय होना चाहिए कि प्रगतिशीलता और पुरातनपंथी दोनों लंबे समय तक साथ-साथ नहीं चल सकते। दोनों नावों की सवारी कांग्रेस दशकों से करती रही है।
पिछले 70 सालों में कांग्रेस से जहां-जहां चूक हुई है, वहीं से अब भाजपा ऑक्सीजन ले रही है। इसका अर्थ यह नहीं है कि भाजपा प्रगतिशीलता की झंडाबरदार बन गई है। ऐसा तभी माना जाएगा जब अपने परंपरागत वोट बैंक हिंदू समाज की कुरीतियों के खिलाफ भी उसकी ऐसी ही सक्रियता दिखेगी। फिलहाल ऐसे लक्षण नहीं दिखते। इतना जरूर है कि बड़ी चालाकी से भाजपा उन मुद्दों पर प्रगतिशीलता दिखा रही है, जहां गंवाने के लिए कुछ नहीं, पर हासिल जरूर हो सकता है। तीन तलाक के अतिरिक्त, मुस्लिम महिलाओं की ***** प्रथा दूसरा ऐसा मुद्दा है।
अच्छा तो यही होता कि अपनी कुरीतियों के खिलाफ समाज ही सामने आता और सुधार करता। इस पर न तो अदालत को दखल देना पड़ता और न ही दलों को राजनीति करने का मौका मिलता। दुर्भाग्य से यह सामाजिक-सांस्कृतिक प्रक्रिया ठहर-सी गई है। जब कानून के हथौड़े से ऐसा किया जाएगा तो किसी-न-किसी को चोट तो लगेगी ही। पुरुष प्रधान मुस्लिम समाज के कथित ठेकेदारों ने तीन तलाक के अध्यादेश का विरोध करना शुरू कर दिया है। उनके दबाव में कुछ मुस्लिम महिलाएं भी आपत्ति जताती दिखती हैं। इसमें कोई दो राय नहीं हो सकती कि तीन तलाक और पर्दा प्रथा जैसी कुरीतियों ने समाज को काफी पीछे कर दिया है। पर्दे के पीछे छिपे चेहरे पर तीन तलाक के अध्यादेश के बाद निश्चित ही मुस्कराहट होगी कि राजनीति ही सही, पर इस अभिशाप से मुक्ति का मार्ग तो प्रशस्त हुआ।

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