स्त्रीवाद अपनी निजता, अपनी अस्मिता की रक्षा के लिए लडऩा सिखाता है। यह हर अन्याय के खिलाफ आवाज बुलंद करने को प्रेरित करता है। इस लड़ाई के लिए किसी किताबी सिद्धान्त से अधिक एक ठोस मन और अपने अंदर की आवाज सुन सकना जरूरी है। किताबें हमें प्रेरणा दे सकती हैं, लेकिन अपने हक के लिए लडऩे का जरूरी साहस अपने अंदर से ही आता है। हर स्त्री की अपनी एक निजी लड़ाई है और उसे लडऩे का हुनर भी उसे अपने अनुसार ही सीखना पड़ता है।
स्त्री-विमर्श सिर्फ कागजी सिद्धान्तों पर नहीं टिका है, वह सिर्फ बुद्धिजीवियों, स्त्री-विमर्श की ध्वजवाहक स्त्रियों के लिए नहीं है, उन लाखों स्त्रियों के लिए है, जो हर क्षण घर-परिवार या समाज में शोषण झेलती हैं। परिवार के नाम पर हो रहे सुनियोजित शोषण के खिलाफ मजबूती से खड़े हुए बिना अपनी बेडिय़ों को तोड़ पाना असंभव है। इसमें कोई दो राय नहीं कि अपने अधिकारों को जानने और उनके लिए लडऩे की इस सतत प्रक्रिया में शिक्षा और आर्थिक आत्मनिर्भरता सबसे महत्त्वपूर्ण टूल हैं। स्त्रीवाद के सिद्धांत इस लड़ाई में कुछ मॉडल जरूर प्रस्तुत कर सकते हैं, लेकिन वे अंतिम नहीं हो सकते।
पुरानी परम्पराएं, संस्कृति, मिथक, इतिहास सिर्फ कुछ आदर्श दे सकते हैं, हर स्त्री की लड़ाई उसकी अपनी है, लेकिन हर स्त्री संघर्ष की लंबी परम्परा में अपने उदाहरण से कुछ जोड़ सकती है। इसे समृद्ध कर सकती है। जरूरी बस इतना है कि स्त्रियां अपने अंदर अवचेतन रूप में बैठी पितृसत्ता से सवाल करती रहें। मन की तहों में जमा अपनी कंडीशनिंग को उघेड़ती रहें।
(लेखिका रचनाकार, अनुवादक हैं व स्त्री मुद्दों पर निरंतर लेखन करती हैं)