ऐसी प्रार्थनाएं आजादी से पहले भी होती थीं। इन ७० वर्षों में कभी किसी ने, चाहे वह हिन्दू-मुस्लिम-सिख-ईसाई कोई भी हो, प्रार्थना, उसकी भाषा, उसके शब्दों पर आपत्ति नहीं की। जब ७० सालों में ऐसी कोई आपत्ति नहीं आई तो अचानक ऐसा क्या जनता का अहित हुआ कि मामला सर्वोच्च न्यायालय पहुंच गया। ऐसा ही मुद्दा सिनेमाघरों में राष्ट्रगान का है। आजादी के बाद से ही स्कूलों की प्रार्थना की तरह वहां भी बिना धार्मिक भेदभाव के फिल्म देखने वाला व्यक्ति खड़ा होकर राष्ट्रगान गाता था।
अचानक क्या हुआ कि कुछ साल पहले यह मामला भी हाईकोर्ट-सुप्रीम कोर्ट पहुंच गया? पहले और आज के समाज में कोई फर्क नहीं है। वही हिन्दू और वही मुस्लिम हैं। अन्तर राजनीतिक दलों और वोटों की भूख वाली उनकी मानसिकता का है। पहले उन्हें समाज की एकता, देश की अखण्डता की चिंता होती थी। वोट न भी मिलें या कम मिलें तो वे परवाह नहीं करते थे।
आज वह मानसिकता गायब होती जा रही है। राजनेताओं को वोटों से मतलब है। फिर चाहे समाज टूटे या हिंसा में लोग मरें। ऐसी सोच राष्ट्रहित में नहीं है। दल और नेता नहीं समझें तो हमारी अदालतों को उन्हें और ऐसे मुद्दे बनाने वालों को समझा देना चाहिए कि आज देश की जरूरत शिक्षा, उद्योग,
रोजगार , विकास और स्वास्थ्य हैं। यदि यह नहीं दे सकते तो मत करो लेकिन समाज को एक और देश को अखण्ड तो रहने दो। देश कमजोर हुआ तो राजनीतिक दलों को कोई टके के भाव नहीं पूछेगा।