हाल में ऐसी कुछ सोशल मीडिया की वैश्विक विद्रूपताओं का जन्म हुआ है जिनका सरोकार राजनीतिक पार्टियों, सरकारों के साथ-साथ राष्ट्रों की सम्प्रभुता, वैचारिक अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और देशों के आंतरिक मसलों यथा सुरक्षा से जुड़ा है। चिंता की बात यह है कि बदलते वैश्विक माहौल में ये सभी आपस में टकराने लगी हैं। यदि समय रहते उचित हल नहीं निकाला गया तो वे अनियंत्रित होकर दुनिया में शांति व सुरक्षा के लिए नवीन चुनौतियां पैदा कर सकती हैं। इस युद्ध क्षेत्र का नाम ‘साइबर स्पेस’ है और मार्ग का नाम ‘इंटरनेट’ या ‘आइ-वे’ है। ये सच है कि सोशल मीडिया और उसके संचार माध्यम इंटरनेट ने दुनिया के नागरिकों की सोच, पहुंच और आवाज यानी इस त्रिआयामी तंत्र को लोकतंत्र में एक नए हथियार के रूप में मजबूती के साथ स्थापित किया है, परंतु यह मजबूती क्या असीमित होनी चाहिए या इसकी सीमाएं कानून के माध्यम से उचित मात्रा में, उचित वक्त पर, उचित माध्यम से नियंत्रित की जानी चाहिए, इस पर व्यापक सोच के साथ कानून बनाने की महती आवश्यकता है।
दुनिया के दो सबसे बड़े लोकतांत्रिक देशों यानी भारत और अमरीका में यह सवाल आज सबसे बड़ी बहस का मुद्दा बन गया है। समय के साथ जब लोकतंत्र की परिभाषाएं और माध्यम बदल रहे हैं तो फिर सीमाएं भी तय होनी चाहिए। यह कैसे स्वीकार किया जा सकता है कि दुनिया के हर साइबर सिटीजन यानी नेटीजन को असीमित अधिकार देकर किसी भी देश की सम्प्रभुता, उसके आंतरिक मामलों, शांति एवं लोकतांत्रिक तंत्रों से छेड़छाड़ कर दखल देने की असीमित छूट दे दी जाए। क्या आज ट्विटर और फेसबुक पर कुछ भी अनर्गल कहने की हमें छूट मिलनी चाहिए, क्या इन सोशल मीडिया माध्यमों को असीमित शक्तियों के साथ वैश्विक विचार मंच का सरपंच बनने देना चाहिए, क्या सोशल मीडिया को धार्मिक, लोकतांत्रिक सीमाएं तोडऩे एवं नैतिकता के उल्लंघन वाले संदेशों व तस्वीरों को हटाने के लिए बाध्य नहीं किया जाना चाहिए? ये सारे किंतु-परंतु बहस के बिंदु हो सकते हैं, परन्तु ये भी सच है कि आज इन पर मंथन की आवश्यकता है, चाहे संयुक्त राष्ट्र को ही दखल क्यों न देना पड़े।
ज्ञात रहे कि संयुक्त राष्ट्र ने सन् 2005 में इनफॉर्मेशन सोसाइटी पर विश्व शिखर सम्मेलन के दौरान ‘इंटरनेट गवर्नेंस फोरमÓ की स्थापना की थी। इस दिशा में वर्ष 2020 में ‘मिशंस पब्लिक्स’ ने 81 देशों के हजारों विशेषज्ञों व नागरिकों को डिजिटलाइजेशन पर सामूहिक विचार-विमर्श करने हेतु एक मंच पर एकत्रित किया, जिसे दुनिया का सबसे बड़ा ‘डायलॉगÓ (संवाद) माना जा सकता है। इसका प्रमुख उद्देश्य आम नागरिकों की राय सुनना और उसके बाद संयुक्त राष्ट्र विशेषज्ञों के साथ एक ऐसा इंटरनेट गवर्नेंस का कानून बनाना है जो कि इंटरनेट को नियंत्रित करने के लिए सभी देशों और नागरिकों को स्वीकार्य हो।
हाल ही आंतरिक मामलों को लेकर विदेशी नागरिकों की प्रतिक्रिया पर जैसे भारत के विदेश मंत्रालय ने नाराजगी जताई है, वैसे ही पूर्व में यूरोपीय संघ सहित विभिन्न सरकारों ने भी सोशल मीडिया पर संवेदनशील संदेशों एवं देशों के आंतरिक मामलों में दखल न देने और इस संबंध में जरूरी कदम उठाने के लिए ऑनलाइन मीडिया कंपनियों को समय-समय पर तलब किया है। आज यह सवाल उठता है कि क्या ऑनलाइन सोशल मीडिया कंपनियों को स्वयं आपत्तिजनक संदेशों को प्रसारित होने से रोकने के लिए ‘अल्गोरिथ्म्स’ नहीं बनाने चाहिए, क्या सोशल मीडिया अकाउंट बनाने के लिए यूनीक आइडी (आधार, पासपोर्ट) अनिवार्य नहीं करना चाहिए, क्या इस मुद्दे पर न्यायालयों का हस्तक्षेप आवश्यक नहीं है? यों तो इन सवालों के जवाब देना आसान नहीं है परन्तु कुछ भी नहीं करने से बेहतर है कि कुछ त्वरित कदम तो उठाए जाएं।
इल्म रहे कि भावी राजनेता परंपरागत लोकप्रिय जनसेवक नहीं, बल्कि हाईटेक तकनीकीविद् होंगे, जिनके हाथ में टैम्परिंग के माध्यम से झूठ को सच और सच को झूठ बनाने और कुछ मिनटों में ही जन-जन तक पहुंचाने की शक्तियां होंगी। माइकल क्लोस ऑनलाइन मीडिया के नियमन के लिए मौजूदा कानूनी और नीतिगत ढांचे की गंभीर समीक्षा पर एक अनुसंधान कर रहे हैं। वह जिन सवालों से निपटना चाहते हैं उनमें प्रमुख हैं – सोशल मीडिया के विनियमन को कैसे वैध कर सकते हैं, मौजूदा कानून कैसे काम करते हैं, क्या ऑफलाइन कानून विभिन्न देशों में लागू होते हैं जो अंतरराष्ट्रीय सोशल मीडिया पर प्रवर्तन के लिए उपयुक्त हैं? सच्चाई के धरातल पर सन् 2000 में बना भारत का साइबर कानून कुछ संशोधनों के बावजूद अब भी सोशल मीडिया के वैश्विक गवर्नेंस पर एक भोथरी तलवार के अलावा कुछ भी नहीं।
(लेखक यूनाइटेड नेशंस की इंटरनेट गवर्नेंस फोरम एवं मिशन पब्लिक के विशेषज्ञ हैं)