ये स्थिति तब है जब सरकारी कर्मचारियों के पिछले साल के 15 दिन के बकाया वेतन का भुगतान नहीं हुआ है। कर्मचारियों को सवा साल से महंगाई भत्ते का भी भुगतान नहीं हुआ है। विकास कार्यों को रोका जा चुका है। यानी खजाना खाली हो या भरा, जनता के सेवक होने का दावा करने वाले विधायकों की सुख-सुविधाओं में कमी नहीं आनी चाहिए। यह मामला भले ही एक राज्य का हो, लेकिन देश में ऐसी ही तस्वीर अलग-अलग रूपों में देखने को मिलती है। एक-दूसरे का विरोध करने वाले अपनी सुविधाओं के नाम पर एकजुट हो जाते हंै। संसद-विधानसभाओं में भारी हंगामा और बहिर्गमन आम बात हो गई है। कभी-कभार तो नौबत मारपीट तक पहुंच जाती है। लेकिन बात जब अपने वेतन-भत्ते या सुविधाएं बढ़ाने की हो, तो बिल बिना चर्चा के पास हो जाते हैं। क्या यह जनप्रतिनिधियों का दोहरा चरित्र नहीं है? सवाल यह है कि जब राजस्थान में हर विधायक को लैपटॉप, कम्प्यूटर और टैबलेट खरीदने के लिए 90 हजार रुपए मिलते हैं, तो अलग से 40 हजार के ब्रीफकेस और टैबलेट देने की क्या जरूरत है?
देश की समस्या यही है कि जनता के वोट से जीतकर संसद-विधानसभाओं में पहुंचने वाले जनप्रतिनिधि अपने आपको जनता से अलग समझने लगते हैं। एकाध अपवाद को छोड़ दिया जाए, तो सरकारी पैसों से मिलने वाली सुविधाओं का विरोध कोई नहीं करता। कोशिश यही रहती है कि सरकार के ऐसे फैसलों की जानकारी जनता तक भी नहीं पहुंचे। क्या इसे ही लोकतंत्र माना जाए? भारत अभी विकासशील देशों की श्रेणी में आता है। गरीबी, अशिक्षा, बेरोजगारी यहां की प्रमुख समस्याएं हैं। आजादी के 73 वर्ष बाद भी राजनेता इन्हीं मुद्दों पर चुनाव लड़ते हैं। फिर भी समस्याएं जस की तस हैं। आज खजाने के एक-एक पैसे का सदुपयोग करने की जरूरत है। ध्यान रखा जाना चाहिए कि जनता का पैसा, जनता के ही काम आए और जनप्रतिनिधि सच्चे अर्थों में जनता के सेवक की तरह काम करें।