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ओपिनियन

‘ग्रहण लग गया है न्याय व्यवस्था पर’

पत्रिका समूह द्वारा विविध विषयों पर विचारों के आदान-प्रदान की शृंखला –
‘की नोट : आइडिया फेस्ट’ – का सिलसिला इस बार नवाबों के शहर लखनऊ जा
पहुंचा। दो दिनों के इस वैचारिक समागम में अपने-अपने क्षेत्र के महारथी
जुटे

Nov 14, 2016 / 11:45 pm

शंकर शर्मा

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पत्रिका समूह द्वारा विविध विषयों पर विचारों के आदान-प्रदान की शृंखला – ‘की नोट : आइडिया फेस्ट’ – का सिलसिला इस बार नवाबों के शहर लखनऊ जा पहुंचा। दो दिनों के इस वैचारिक समागम में अपने-अपने क्षेत्र के महारथी जुटे और उन्होंने साझा किए अपने अनुभव, अपना दृष्टिकोण। आज यहां पेश है न्यायपालिका पर जाने-माने अधिवक्ता, राज्यसभा सांसद और कांग्रेस नेता अभिषेक मनु सिंघवी और राजनीति पर सांसद वरुण गांधी के उद्बोधन के संपादित अंश…



न्यायिक व्यवस्था सर्वाधिक महत्वपूर्ण है, लेकिन उसे ग्रहण लग गया है। अच्छा लगे या बुरा, न्याय व्यवस्था सर्वाधिक सत्तावान है। मेरा फायदा यह है कि मैं इनसाइडर हूं। समस्या का सुधार हो सकता है। गांधी जी के शब्दों में सुधार की प्रक्रिया में पांच चीजें हैं- अलगाव, मजाक, गाली, दबाव और आदर।

पालकीवाला ने कहा है – मेरे शब्द जब तक तुम्हारे दिमाग में नमक की तरह नहीं होंगे, बदलाव होगा नहीं। बदलाव के लिए चार-पांच चीजें हैं, जो हम सब जानते हैं, उनका रेखांकन जरूरी है। 70 वर्ष की आजादी में हमारे विश्वविद्यालयों में कानून के ढांचे पर जो प्रशासनिक काम होता है, उसके बारे में आज तक नहीं पढ़ाया जाता है।

जोधपुर में हमने रिफॉर्म ऑफ जस्टिस की शुरुआत की थी। चला भी था। न्यायपालिका पर लंबित केस का पहाड़ है। इसके लिए जमीनी बदलाव की जरूरत है। इसमें सर्वोपरि है मानसिकता में बदलाव। जब हम सड़क को साफ कर देते हैं, तो अन्य लोग भी साफ रखते हैं। यह काम अखिल भारतीय स्तर पर करना आवश्यक है। प्रशासनिक प्राधिकरणों से लेकर उच्चतम न्यायालय तक करना होगा। 125 करोड़ की आबादी में याचक के रूप में 50 करोड़ से ज्यादा हैं।

उच्च न्यायालयों में 1017 जज हैं। नवम्बर, 2015 में 408 पद रिक्त थे। जिला कोर्ट में ढाई करोड़ केस लंबित हैं। 17 हजार जज में से साढ़े तीन हजार पद खाली हैं। 1992-93 से जब से न्यायपालिका ने न्यायिक नियुक्तियों को अपने हाथ में लिया है, तो लंबित केस निस्तारण की जिम्मेदारी भी उन्हीं की है। ये हो सकता है कि सेवानिवृत्ति से पहले नए जज की नियुक्ति कर लें। अगर नाम प्रस्तावित नहीं कर पाते हैं तो वर्तमान जज के ही कार्यकाल को आगे बढ़ा दें। नियुक्तियों में इतना विलंब क्यों? इसका कारण यह है कि हम वकील की तलाश नहीं कर पा रहे हैं।

प्रक्रिया ऐसी है कि ‘अपॉइंट’ के स्थान पर ‘डिसअपॉइंट’ कैसे करें। इसके चलते आत्मसम्मानी वकील जज बनने से मना कर देता है। अब कॉलेजियम खतरनाक स्थिति में पहुंच चुका है। वर्ष 1980-90 में विकार आना शुरू हुआ। पुराने सिस्टम में विकार के चलते 1992 में न्यायपालिका ने पूरा अधिकार अपने हाथ में ले लिया, जो असंवैधानिक था। 1992 से 2000 तक इसमें भी बहुत विकार आ गए। खरीद-फरोख्त होने लगी। न्यायपालिका में राजनीति आ गई। फिर एनजेएसी का प्रस्ताव आया। मैं भी समर्थक था। एनजेएसी भी कॉलेजियम है पर यह ज्यादा व्यापक है।

राज्यसभा में मैं निजी बिल लेकर आया। समर्थन शुरू किया। सुप्रीम कोर्ट में झगड़े वाली दलीलें दी गई थीं, न्यायपालिका को अपमानित किया जा रहा था। एनजेएसी को स्ट्राइक डाउन कर दिया गया। सरकार ने बातचीत का सुझाव दिया। जजों की नियुक्ति में सरकार का कोई अधिकार क्षेत्र नहीं है, हां उसे विलंब का अधिकार है। ये भत्र्सना योग्य हैंं।

वित्त मंत्रालय ने 2015 में न्यायपालिका को जारी फंड पर रिपोर्ट दी। न्यायपालिका को 5000 करोड़ रु. इवनिंग कोर्ट, ईडीआर, लोक अदालत, हैरिटेज कोर्ट, ट्रेनिंग के लिए दिए। 50 से 60 फीसदी कम फंड का उपयोग हुआ है। फंड खर्च करने के लिए किसी कानूनी ज्ञान की जरूरत नहीं है, इसके लिए तो मैनेजर चाहिए।

हाईकोर्ट में सिविल केस से क्रिमिनल केस तीन गुना ज्यादा हैं। जाहिर है कि जजों की नियुक्ति भी इसी तरह से करनी होगी। क्षेत्रीय आधार पर भी यह आंकड़ा बदल सकता है। नेशनल ज्युडिशियल ग्रिड बनाने की जरूरत है। इससे एकरूपता आएगी। अभी तो हाईकोर्ट में रिट पिटिशन के नंबर, नाम लिखने का तरीका अलग है। अलग-अलग नाम हैं, सो कंप्यूटर समझ नहीं पाता है। यह समस्या झूठी विरासत व झूठी अहंकार के कारण है।

अंग्रेज जो चलन चला गए, उसे क्यों नहीं बदल सकते। न्याय व्यवस्था में खामियों का ऑडिट क्यों नहीं करते हैं। सुप्रीम कोर्ट में 13 कोर्ट के कमरे हैं। किसी केस में गलती होने पर केस घूमता रहता है। एफआईआर को लेकर ललिता कुमारी केस 2008 में प्रस्तुत किया गया। ललिता का यह केस दो, तीन और पांच जजों की बेंच में गया। अंतिम निर्णय 2013 में आया। छह साल तक कानून पूरी तरह कंफ्यूजन में था, स्पष्ट नहीं था।

किसी केस में गलती होने पर पांच जजों की खंडपीठ हो ताकि तुरंत निर्णय हो सके। ऐसा नहीं है कि जज काम नहीं करते। भारत के जज सर्वाधिक मेहनत करते हैं। सेवानिवृत्त होने की आयु पर भी गफलत है। जिला कोर्ट में 60 वर्ष, हाईकोर्ट में 62 वर्ष और सुप्रीम कोर्ट में 65 वर्ष पर सेवानिवृत्ति होती है।

मैंने राज्यसभा में जजों की सेवानिवृत्ति आयु 65 वर्ष करने का प्राइवेट बिल प्रस्तुत किया है। इतिहास में सिर्फ चार प्राइवेट बिल पास हुए हैं। न्यायिक व्यवस्था की स्थिति गंभीर है। न्याय को याचक की कसौटी पर कसा जाए, न कि जज, वकील और अन्य की कसौटी पर। याचक बनो तो ज्ञात होगा कि क्या स्थिति होती है। याचक की स्थिति कुछ ऐसी है –

दोपहर तक बिक गया एक झूठ।
मैं एक सच को लेकर शाम तक बैठा रहा।।
न्यायिक व्यवस्था में सुधार न हुआ तो हमारे बच्चे सजा पाएंगे। इस संबंध में यह पंक्ति समाचीन है :
लम्हों ने खता की, सदियों ने सजा पाई।


न्याय को याचक की कसौटी पर कसा जाए, न कि जज, वकील और अन्य की कसौटी पर। याचक बनो तो ज्ञात होगा कि क्या स्थिति होती है। अभिषेक मनु सिंघवी राज्यसभा सांसद, कांग्रेस

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