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ओपिनियन

आर्थिक नीतियो से मिले सभी को लाभ

पार्टियां घोषणापत्रों में जनहित के वादे तो कर देती हैं, पर उससे होने वाले आर्थिक घाटे की भरपाई पर चुप रहती हैं।

Jan 16, 2015 / 12:12 pm

Super Admin

अर्थशास्त्र में अक्सर ही दो अंतर्विरोधी विचारधाराएं होती हैं। अमरीकी राष्ट्रपति हैरी ट्रूमन ने एक बार इन अंतर्विरोधी विचारों से तंग आकर कहा था कि मुझे एक हाथ वाला अर्थशास्त्री सलाहकार चाहिए क्योंकि सभी अर्थशास्त्री अपना मत देने के बाद “ऑन द अदर हैंड” कह कर एक दूसरा मत भी दे देते हैं। ऎसे ही दो मत हैं सब्सिडी या आर्थिक पुनर्वितरण का मॉडल बनाम आर्थिक विकास का मॉडल।

अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) के एक पेपर के अनुसार पुनर्वितरण की नीतियां अगर सही तरीके से बनाई और लागू की जाएं तो वो विकास को बढ़ावा ही देती हैं।

आईएमएफ की ही एक और रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत के आर्थिक विकास दर में आई कमी के मुख्य कारणों में इन्फ्रास्ट्रक्चर और निवेश में गिरावट है। दरअसल, आर्थिक नीतियों के साथ कई बार ऎसा होता है कि वो सुनने में तो बहुत प्रभावी लगती हैं पर वास्तव में सामाजिक हित में नहीं होती जैसे कुछ क्षेत्रों में दी जा रही सब्सिडी समानता की जगह असमानता को बढ़ा ही रही है।

स्पष्ट है कि निकट भविष्य की राजनीतिक स्थिरता और आर्थिक सुदृढ़ता दोनों ही आम चुनाव के नतीजों पर भी निर्भर करेगी। चुनावी हलचल और अटकलों का शेयर बाजार पर भी असर पड़ना ही है। नई सरकार की आर्थिक नीतियां क्या होंगी, ये तो समय ही बता सकता है पर कोई भी नई सरकार आते ही आर्थिक व्यवस्था में क्रांतिकारी परिवर्तन करे, ऎसा संभव नहीं लगता।

व्यवस्था को झकझोर कर पूरी तरह बदल देना किसी भी नई सरकार के लिए संभव नहीं होगा। न ही कोई सरकार पूर्णत: पूंजीवादी विकास का मॉडल अपना लेगी, न ही पूर्णतया विकास विरोधी और पुनर्वितरण की नीतियां। पर ये उतना महत्वपूर्ण भी नहीं है। कोई भी सरकार संरचनात्मक परिवर्तन किस दिशा में करती है, वो ज्यादा महत्वपूर्ण है।

पुनर्वितरण, सब्सिडी और विकास एक साथ नहीं हो सकते, ऎसा नहीं है। कोई भी सरकार ऎसे कारकों की ज्यादा दिन तक अनदेखी नहीं कर सकती जो विकास उद्योग और निवेश को हतोत्साहित करते हैं। सब्सिडी का फायदा गलत लोगों तक पहुंचने का सबसे बड़ा उदाहरण है डीजल पर सब्सिडी और डीजल चालित कारों की बिक्री में वृद्धि।

डीजल पर दी जाने वाली सब्सिडी का सबसे ज्यादा फायदा होता है कार रखने वालों को। वैसे ही रसोई गैस पर दी जाने वाली सब्सिडी। अप्रभावी सामाजिक कल्याण के कार्यक्रमों का सबसे बड़ा नुकसान होता है कि सरकार के पास उन जरूरी क्षेत्रों में खर्च करने को संसाधन नहीं बचते, जहां करना ज्यादा जरूरी होता है।
साथ ही इस क्रम में बजट घाटे को कम करने के सिलसिले में कुछ उद्योग और वर्ग हतोत्साहित भी होते हैं।

फिर संसाधनों का उपयोग वहां नहीं होता जहां से उत्पादन में वृद्धि हो। इस तरह सब्सिडी का बोझ अंतत: सरकार पर नहीं बल्कि करदाताओं यानी जनता पर ही पड़ता है। अप्रभावी और सामाजिक रूप से महंगी नीतियां भी सरकारी घाटे को बढ़ाकर अंतत: समाज पर बोझ ही बन जाती हैं। जब सब्सिडी समान रूप से धनी और गरीब दोनों वर्गो को मिलती है, वहां धनी वर्ग को ज्यादा फायदा होता है।

जब धनी वर्ग को ज्यादा फायदा पहुंचे, तो इससे समाज में और असमानता बढ़ती ही है। ऎसे हालात में सिर्फ वरीयता वाले क्षेत्रों में सब्सिडी देने की दिशा में सुधार करने ही पड़ेंगे। सब्सिडी के ढांचे में बदलाव के साथ प्रशासनिक सुधार की भी जरूरत है। जिस तंत्र से ये सब्सिडी पहुंचती है वो प्रभावी नहीं होना भी इसकी विफलता का एक सबसे बड़ा कारण है।

अगर दलों के घोषणापत्र देखें, तो पार्टियां सुधार की जगह सामाजिक कल्याण, पेंशन, स्वास्थ्य इत्यादि का वादा तो कर देती हैं, पर उससे होने वाले आर्थिक घाटे को कौन भरेगा, इस पर चुप रहती हैं। वोट बैंक का बड़ा हिस्सा अभी भी गरीब वर्ग ही है। बजट घाटे की ही तरह प्राइवेट सेक्टर में आरक्षण से ज्यादा महत्वपूर्ण सवाल क्या ये नहीं है कि जब नई नौकरियां ही नही होंगी, तो आरक्षण से क्या फायदा हो जाएगा।

जहां गरीबों को सामाजिक सुरक्षा, शिक्षा और स्वास्थ्य के नाम पर किए जा रहे खर्चे का कम हिस्सा मिल पाता हो और उससे धनी वर्ग को लाभ मिलता हो, ऎसी सब्सिडी और टैक्स नियमों को खत्म करना गरीब विरोधी कैसे हो सकता है? उद्योग जगत और समाज में संसाधनों का समुचित वितरण और उपयोग होता है।
अभिषेक ओझा, आर्थिक विशेषज्ञ

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