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अर्थव्यवस्था: आर्थिक मुद्दों से दूर हैं आम जन

– आर्थिक नीति निर्धारण में जनता की प्रत्यक्ष भागीदारी होनी चाहिए।- 10 मंत्रालयों पर देश बदलने की जिम्मेदारी ।- आर्थिक मामलों के संदर्भ में ‘दो गज की दूरी, मास्क जरूरी’ जैसे जन जागरूकता संदेश क्यों नहीं प्रसारित किए जाते?

नई दिल्लीFeb 04, 2021 / 07:35 am

विकास गुप्ता

अर्थव्यवस्था: आर्थिक मुद्दों से दूर हैं आम जन

अर्थव्यवस्था: आर्थिक मुद्दों से दूर हैं आम जन

शुभ्रांशु सिंह

बजट पेश हो चुका है। इसका प्रभाव हम सब पर पड़ेगा, परंतु क्या हम इसे पूरी तरह समझ पाए हैं? क्या यह जनता की राय से प्रभावित होता है? शेयर बाजार पर पैनी नजर रखी जा रही है, परंतु क्या इस सबके बीच जनता की आवाज सुनी जा रही है? देश के किसी भी औसत नागरिक से राजनीतिक मसलों पर उसकी राय पूछ कर देख लीजिए। आपको काफी कुछ सुनने के लिए मिलेगा। अब उसी व्यक्ति से अगर आपने अर्थव्यवस्था के विषय में कुछ पूछ लिया तो उसके पास बोलने के लिए कम होगा।

लोकतंत्र में आर्थिक नीति निर्धारण में जनता की प्रत्यक्ष भागीदारी होनी चाहिए। हमारी संसदीय व्यवस्था में आर्थिक नीति निर्धारण में जन प्रतिनिधियों को बहुत सीमित भूमिका दी गई है। आर्थिक मामलों को तकनीकी विशेषज्ञों के अधिकार क्षेत्र में माना जाता है। लोग अर्थव्यवस्था से जुड़ी बातों को समझ नहीं पाते। ऐसे में वे कैसे एकजुट हो कर आगे आएंगे और नीतियों को प्रभावित करेंगे? वर्ष 2021-22 का आम बजट ऐसे समय पेश किया गया, जब देश की जीडीपी स्वतन्त्रता के बाद से लेकर अब तक के सर्वाधिक संकुचन के दौर में है। वर्ष 202०-2१ में जीडीपी में 7.7 प्रतिशत का संकुचन देखा गया। इससे पहले केवल चार बार ऐसा हुआ है, जब भारत में जीडीपी वृद्धि दर में संकुचन देखा गया। 1957-58 (1.2 प्रतिशत), 1965-66(3.7 प्रतिशत), 1972-73 (0.3 प्रतिशत) और 1979-80(5.2 प्रतिशत)। क्या अब भी भारतीय इसके मायने समझते है? उन्हें चयन और चुनौतियों के बारे में और शिक्षा क्यों नहीं दी गई? आर्थिक मामलों के संदर्भ में ‘दो गज की दूरी, मास्क जरूरी’ जैसे जन जागरूकता संदेश क्यों नहीं प्रसारित किए जाते?

समस्या यह है कि जटिल गणित, प्रतिस्पद्र्धा तकनीक और आडंबरपूर्ण विवरण के चलते अर्थशास्त्र आम बोलचाल की भाषा में समझाया नहीं जा सकता। अर्थशास्त्री हिन्दी या अंग्रेजी भाषा में अपनी बात कहने की बजाय रेखाचित्रों और जटिल समीकरणों का इस्तेमाल करते हैं। भारत में दो अर्थशास्त्री नोबेल पुरस्कार से सम्मानित हैं। भारतीय शिक्षा और जमीन से जुडे अमत्र्य सेन और अभिजीत बैनर्जी। इसके बावजूद भारत अर्थशास्त्र को मुख्य धारा में लाने में विफल रहा। ज्यादातर लोगों के लिए यह विषय गूढ़ बना हुआ है। भारत में 40 प्रतिशत युवा 20 साल से कम उम्र के हैं और उन्हें अर्थव्यवस्था के संदर्भ में कोई अनुभव नहीं है। हर कोई अर्थव्यवस्था संबंधी सवालों के जवाब तलाशता रहता है। यह और बात है कि हो सकता है उन्हें सवाल भी पूरी तरह समझ न आए हों।

अर्थशास्त्र एक ऐसा विषय है, जो सबको प्रभावित करता है। इसलिए यह महत्त्वपूर्ण है। जो चीज महत्त्वपूर्ण है, उसकी जानकारी व्यापक पैमाने पर उपलब्ध कारवाई जानी चाहिए और समझाई जानी चाहिए। अर्थशास्त्रियों का योगदान इस संदर्भ में निराशाजनक ही रहा है। किसी भी अर्थशास्त्री ने हमें 2008 की आर्थिक मंदी और ‘हाउसिंग बबल’ के बारे में नहीं चेताया। नैतिकता का तकाजा यह है कि लोकतंत्र में नीति प्रभावित करने की छूट होनी चाहिए। हमारे देश की अर्थव्यवस्था और राजनीति को निर्धारित करने के लिए नाजुक घटकों को समझना महत्त्वपूर्ण है। अगर लोग न तो समझेंगे और न ही भागीदारी निभा पाएंगे तो परिणाम गंभीर ही होंगे।

10 मंत्रालयों पर देश बदलने की जिम्मेदारी-
वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने स्वास्थ्य सेवाओं से लेकर कई विभागों को देश में बड़े बदलाव की जिम्मेदारी दी है। इन मंत्रालयों को बड़े बजट देकर सीमाओं की सुरक्षा से लेकर खेती—किसानी में बेहतरी करने की उम्मीदों को बढ़ावा दिया है। आंतरिक सुरक्षा के लिए भी बजट में बड़े प्रावधान किए गए हैं।

(लेखक ग्लोबल मार्केट लीडर, ब्लॉगर और ब्रांड बिजनेस कोच हैं )

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