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जजों की भर्ती : कॉमन परीक्षा कितनी जायज?

अदालतों में जजों की कमी और मुकदमों का बढ़ते अंबार के चलते त्वरित न्याय का सपना पीडि़तों के लिए सपने जैसा ही रहता है। 1993 में उच्च न्यायलयों में जजों की नियुक्ति के लिए कॉलेजियम बना, जिसमें शिकायतों को देखते हुए मौजूदा दौर में एनजेएसी एक्ट पारित हुआ।

Nov 05, 2016 / 12:37 am

अदालतों में जजों की कमी और मुकदमों का बढ़ते अंबार के चलते त्वरित न्याय का सपना पीडि़तों के लिए सपने जैसा ही रहता है। 1993 में उच्च न्यायलयों में जजों की नियुक्ति के लिए कॉलेजियम बना, जिसमें शिकायतों को देखते हुए मौजूदा दौर में एनजेएसी एक्ट पारित हुआ। जिसे सुप्रीम कोर्ट ने खारिज कर दिया। अब पीएम ने ऑल इंडिया जूडिशल सर्विसेज परीक्षा की बात कही है। जजों की भर्ती का यह रास्ता कितना व्यावहारिक और फायदेमंद है, क्या इसमें भी हो आरक्षण और क्या हों शर्तें, इसी पर बड़ी बहस…
नियुक्तियों में पारदर्शिता के लिए यह बेहतर होगा

देश भर में न्यायिक सेवाओं के लिए एक ही प्रतियोगी परीक्षा कराने के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के प्रस्ताव का स्वागत किया जाना चाहिए। हालांकि इस संबंध में सरकार ने समूची प्रक्रिया का खुलासा नहीं किया है पर यह माना जाना चाहिए कि फिलहाल राज्यों में अधीनस्थ न्यायिक सेवा व उच्च न्यायिक सेवा के लिए आयोजित की जा रही परीक्षाओं में एकरूपता लाने के लिहाज से ही ऐसा विचार किया जा रहा है। जिस तरह से आईएएस के चयन के लिए अखिल भारतीय स्तर पर प्रतियोगी परीक्षा होती है उसी तरह से न्यायिक अधिकारियों के चयन के लिए ऐसी परीक्षा के आयोजन का यह प्रस्ताव प्रतीत होता है। उच्च न्यायालयों व उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों के चयन के लिए पहले से ही संवैधानिक प्रक्रिया तय की हुई है। 
वर्ष 1993 में सुप्रीम कोर्ट की एक संवैधानिक पीठ ने जजों की नियुक्ति के संबंध में एक निर्णय दिया जिसमें ऐसी प्रक्रिया का उल्लेख किया जो संविधान में परिभाषित नहीं थी। एडवोकेट्स ऑन रिकार्ड एसोसिएशन के प्रकरण में सुप्रीम कोर्ट ने कॉलेजियम व्यवस्था को जन्म दिया जिसमें हाईकोर्ट जज की नियुक्ति की सिफारिश हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस व दो वरिष्ठतम जजों द्वारा किया जाना आवश्यक कर दिया गया। सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस व चार अन्य वरिष्ठतम जजों को मिलाकर कॉलेजियम सिस्टम प्रतिपादित किया गया। इस प्रक्रिया से जजों की नियुक्ति में शिकायतों को देखते हुए संसद ने राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग अधिनियम (एनजेएसी एक्ट) पारित किया। इसके तहत बने आयोग को हाईकोर्ट व सुप्रीम कोर्ट के जजों की नियुक्ति का अधिकार दिया गया था। जिसको सुप्रीम कोर्ट ने असवैधानिक घोषित कर दिया और केन्द्र सरकार को मेमोरेंडम ऑफ प्रोसिजर (एमओपी) बनाने के निर्देश दिए। फिलहाल एमओपी को लेकर केन्द्र व सुप्रीम कोर्ट के बीच टकराव बना हुआ है। बहरहाल, हाईकोर्ट व उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति में अखिल भारतीय स्तर की परीक्षाओं का आयोजन संभव नहीं। इसके लिए संविधान संशोधन की आवश्यकता पड़ेगी। इतना जरूर है कि अधीनस्थ और उच्च न्यायिक सेवा के लिए एक ही प्रतियोगी परीक्षा के माध्यम से न्यायाधीशों की नियुक्तियां होती हैं तो निचले स्तर पर नियुक्तियों में भेदभाव की शिकायतें दूर हो सकेंगी। 
प्रधानमंत्री की इस मंशा से यह तो समझा जाना चाहिए कि वे ऐसी नियुक्तियों में पारदर्शिता चाहते हैं। आईएएस भर्ती प्रक्रिया हमारे यहां काफी पारदर्शी मानी जाती है। इसी तर्ज पर जजों की भर्तियां की जाती है तो किसी को कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए। ऐसी व्यवस्था से परीक्षा का एक सा पाठ्यक्रम तो हो ही सकेगा, पेपर लीक होने या चहेतों को फायदा पहुंचाने की शिकायतों पर भी लगाम लगेगी। 
शिवकुमार शर्मा, पूर्व न्यायाधीश

राष्ट्रीय विधि आयोग के सदस्य रहे शर्मा, राजस्थान हाई कोर्ट में न्यायाधीश के रूप में सेवानिवृत्त हुए हैं।

अधीनस्थ और उच्च न्यायिक सेवा में प्रतियोगी परीक्षा के माध्यम से न्यायाधीशों की नियुक्तियां होती हैं तो नियुक्तियों में भेदभाव की शिकायतें दूर हो सकेंगी। प्रधानमंत्री की इस मंशा से समझा जाना चाहिए कि वे प्रक्रिया में पारदर्शिता चाहते हैं। 
सिर्फ किताबें रटकर जज होने में कोर्ट का भला नहीं

न्यायपालिका में जजों की कमी और मुकदमों के अंबार से सब वाकिफ हैं। सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश खुद प्रधानमंत्री के समक्ष चिंता जाहिर कर चुके हैं। प्रधानमंत्री न्यायपालिका पर दबाव कम करने और कानून मंत्रालय इस समस्या से निपटने की बात कहता रहा है पर समाधान अभी तक हासिल नहीं हो सका। अब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एआईजेएस (ऑल इंडिया जूडिशल सर्विसेज) के जरिए जजों की भर्ती की बात कही है। मेरा मानना है कि भले ही ऐसी परीक्षा आयोजित कराई जा सकती है लेकिन यह सिर्फ आईएएस या आईपीएस के चयन जैसी परीक्षा नहीं हो। न्यायपालिका अन्य संस्थाओं से बिलकुल भिन्न है। यह स्वतंत्र है और यहां जज किसी वरिष्ठ के अधीन कार्य करने और आदेश का पालन नहीं करने आते। इसलिए इस तरह की परीक्षा में ऐसे लोग ही शामिल हो पाएं, जिन्हें नियमित अदालती प्रैक्टिस का अच्छा अनुभव हो। यानी प्रैक्टिस को परीक्षा की एक शर्त रखा जा सकता है। प्रैक्टिस की अवधि 10 साल के आसपास रखी जा सकती है। सिर्फ किताबें पढ़कर जज नहीं बनने चाहिए। हाईकोर्ट या निचली अदालत में नियमित प्रैक्टिस के दौरान उसे भिन्न-भिन्न मुकदमे लडऩे का अनुभव होना चाहिए। यानी एक सीनियर एडवोकेट के स्तर का व्यक्ति परीक्षा में दाखिल हो। सिर्फ किताबें रटकर परीक्षा पास करके जज बनाना न्यायपालिका का भला नहीं करेगा। चूंकि कोई पीडि़त उच्च अदालत में ही पुख्ता न्याय की आस में आता है। यहां जजों को सिर्फ कानून की जानकारी ही काफी नहीं होती, उन्हें कानून का निर्धारण आना चाहिए। जजों को अपने दिमाग का इस्तेमाल करना होता है। 
इसलिए अदालतों में सैंकड़ों नई-नई ‘रूङ्क्षलग’ आती हैं। हालांकि अभी तो सुप्रीम कोर्ट तक में बिना परीक्षा के ही जज बन सकते हैं, तो इस लिहाज से परीक्षा अच्छा रास्ता है। कॉलेजियम सिस्टम में जजों की नियुक्ति में भाई-भतीजावाद के आरोप लगते रहे हैं। इसलिए परीक्षा के जरिए चयन में पारदर्शिता तो बढ़ेेगी। पर इस बहस में सबसे बड़ा सवाल यह है कि जजों के चयन के लिए यह परीक्षा कराएगा कौन? न्यायपालिका स्वतंत्र है इसलिए इस तरह की परीक्षा सरकार क्यों कराना चाहती है। न्यायपालिका में सुधार का काम वह खुद ही करे। सरकार दखल न दे। वहीं एआईजेएस परीक्षा में आरक्षण की बात कहना सरासर गलत है। इसका विरोध होना चाहिए। क्या न्याय देने वाले जज की भी कोई जाति होनी चाहिए? क्या जाति से न्यायपालिका में समझदारी और पारदर्शिता बढ़ाई जा सकती है? इसलिए ऐसी परीक्षा में किसी तरह का कोई ‘कोटा’ नहीं होना चाहिए। कम से कम न्यायपालिका को तो आरक्षण की चंगुल में नहीं फंसाना चाहिए। किसी निचली जाति के व्यक्ति के लिए अदालत में प्रैक्टिस करने पर पाबंदी थोड़े ही है। 
एम एल शर्मा

सुप्रीम कोर्ट में सीनियर एडवोकेट, विभिन्न अदालतों में पीआईएल दायर करते रहे हैं

यह परीक्षा सिर्फ आईएएस या आईपीएस के चयन जैसी परीक्षा नहीं हो। न्यायपालिका अन्य संस्थाओं से बिलकुल भिन्न है। यह स्वतंत्र है और यहां जज किसी वरिष्ठ के अधीन कार्य करने और आदेश का पालन नहीं करने आते। 

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