यही वह कारण है कि चुनाव में जनता के विषय पीछे छूट गए। राजनीति शत्रुता पर आधारित हो गई। एक-दूसरे को मिटाने के नारे, कांग्रेस (विपक्ष) मुक्त भारत के नारे मुखर हो गए। चुनाव हार-जीत का मैदान बन गए। जन प्रतिनिधि के चुनाव की अवधारणा, जो लोकतंत्र की जड़ में रही है, पूर्णत: उखड़ ही गई। लोकतंत्र निर्मूल हो गया। देश तो आभारी है सर्वोच्च न्यायालय का (जो स्वयं विवादों से घिरा है), जिसने अदम्य साहस का परिचय दिया। अदृश्य भय की आशंका के बीच सत्य की रक्षा (परित्राणाय साधुनां) का संकल्प पूरा कर दिखाया। लोकतंत्र की सांसें लौट आईं। न्यायपालिका में भी हर्ष की लहर दौड़ी ही होगी। पहली बार किसी राज्यपाल के निर्णय पर ऐसी तीखी और आक्रामक टिप्पणी भी देश ने सुनी होगी।
सच तो यह है कि कांग्रेस पहली बार इतनी जागरूकता और आक्रामकता के साथ नए तेवर में, कफन बांधकर लडऩे के मूड में दिखाई दी। लगा कि लोकतंत्र में विपक्ष की भूमिका सत्तापक्ष से भी अधिक महत्वपूर्ण है। यहां तक कि अधिकार की लड़ाई के लिए देर रात सर्वोच्च न्यायालय का दरवाजा खट-खटा दिया। इसमें चोट खाए हुए सांप की फुंफकार सुनाई दे रही थी। हाल ही में देश के मुख्य न्यायाधीश के विरुद्ध महाभियोग की उपराष्ट्रपति से स्वीकृति प्राप्त नहीं हुई थी। उपराष्ट्रपति के विरुद्ध भी कांग्रेस न्यायालय पहुंच गई। यह आक्रामकता की पराकाष्ठा थी।
एक प्रश्न यह भी उठ रहा है कि क्या भाजपा ने सत्ता का ऐसा दुरुपयोग पहली बार किया है? अपने चहेते लोगों को राज्यपाल बनाकर उनका अपयश पहली बार करवाया है? कांग्रेस कहां थी जब मार्च-२०१७ में मणिपुर के चुनावों में कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी (२८ सीटें) थी और सरकार भाजपा (२१ सीटें) ने बनाई? गोवा में भी कांग्रेस (१७ सीटें) और भाजपा (१३ सीटें) की स्थिति ऐसी ही थी। वहां भी कर्नाटक में कांग्रेस की तरह भाजपा की सरकार थी। कैसे कांग्रेस ने वहां के राज्यपालों (क्रमश:
नजमा हेपतुल्ला और मृदुला सिन्हा) के निर्णयों को मौन स्वीकृति दे दी?
इस वर्ष फरवरी में मेघालय विधानसभा चुनावों में भी राज्यपाल गंगाप्रसाद ने सबसे बड़ी पार्टी कांग्रेस (२१ सीटें) को नकार कर संगमा को (१९ सीटें) सरकार बनाने का आमंत्रण दे दिया। कांग्रेस मौन थी। जिसकी लाठी उसकी भैंस का अभियान बेरोकटोक चला। इससे भी एक कदम आगे लोकतंत्र की हत्या का उदाहरण सामने आया नगालैण्ड में। भाजपा ने चुनाव लड़ा एनपीएफ के गठबन्धन में। सीटें मिलीं १२ और २६ यानी बहुमत के साथ। सरकार बनी विरोधी पार्टी एनडीपीपी के साथ, जिसके विरुद्ध चुनाव लड़ा था। मानो वहां चुनाव आयोग भी नहीं था। राज्यपाल पद्मनाभ आचार्य ने शपथ दिला डाली।
इन चुनावों में सभी जगह राज्यपालों की भूमिका राजनेताओं की तरह स्पष्ट होती गई। किसी को अपमान की अनुभूति भी नहीं हुई। उनके समक्ष कोई स्पष्ट कानून भी नहीं था जो इनका मार्गदर्शन करता। निश्चित ही स्वविवेक तो अपनी प्राकृतिक दिशा में ही
कार्य करेगा। कहीं गठबन्धन को प्राथमिकता, कहीं सबसे बड़े दल को। क्या कोर्ट का बीच में आना राज्यपाल के पद का अपमान नहीं? क्या भविष्य में कोई राज्यपाल इस प्रकार मनमर्जी से निर्णय कर पाएंगे? अन्य राज्य भी यदि अब न्यायालय में जाते हैं तो क्या लोकतंत्र गौरवान्वित होगा?
आज का ज्वलंत प्रश्न है कि क्या भाजपा सत्ता के अपने अहंकार का आकलन करेगी? यह ‘चित भी मेरी, पुट भी मेरी’ क्या आगे भी चलेगी। आज भाजपा की सहयोगी पार्टियां मुखर होने लगी हैं। चाहे असम गण परिषद हो, शिवसेना या अकाली दल हो। तेलुगूदेशम तो साथ ही छोड़ गई। दूसरी ओर कर्नाटक चुनाव का सारा श्रेय कांग्रेस को भी नहीं जा सकता। देश की सभी विपक्षी पार्टियां चुनाव अभियान में जुटी हुई थीं।
सोनिया गांधी से लेकर
मायावती , चन्द्र्रबाबू नायडू, चन्द्रशेखर राव, सीताराम येचुरी-विजयन (सीपीएम केरल) सहित भाजपा के विरुद्ध मैदान में थे। यही हमारे लोकतंत्र का भविष्य है। क्या कोई चिन्तित दिखाई पड़ता है- देश के लिए, लोकतंत्र के यशस्वी भविष्य के लिए?
हमारे सामने हिन्दी भाषी, बड़े एवं भाजपा शासित राज्यों के विधानसभा चुनाव सिर पर हैं। इस बार यहां भी कर्नाटक होगा, भले ही परम्परा से दो ही दल रहे हों। एक तो चेहरे बदलने की चर्चा पर केन्द्र की उठा-पटक, दूसरा सभी विरोधी दलों का एकजुट होकर मुकाबला करना। तीसरा कांग्रेस का नया आक्रामक चेहरा। भाजपा और कांग्रेस, दोनों को ही यह नहीं मान लेना चाहिए कि तूफान को आसानी से झेल लेंगे। जनमानस के प्रतिबिम्ब भी मीडिया में झलकते रहते हैं। देखने वाले की मर्जी और देश का भाग्य!