कर्नाटक विधानसभा चुनाव भी इन लोकलुभावन वादों से अछूते नहीं हैं। राजनीतिक दलों को लगता है कि मतदाताओं को प्रलोभन देकर रिझाया जा सकता है। यह सर्वविदित तथ्य है कि घोषणा पत्रों के सभी वादे कभी पूरे किए ही नहीं जाते। ऐसे में चुनाव सुधारों का यह सही वक्त है जिसमें राजनीतिक दल जनता से ऐसे वादे न कर पाएं जिन्हें वह पूरा नहीं कर सकती। अप्रेल 2017 में ‘चुनाव सुधार व चुनावी मुद्दों’ पर आयोजित एक सेमिनार में तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश जस्टिस जे.एस. खेहर ने तत्कालीन राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी की मौजूदगी में राजनीतिक दलों से कहा था कि उन्हें घोषणा पत्र में अधूरे छोड़े गए वादों के प्रति जवाबदेह होना चाहिए। वादे पूरे न कर पाने के लिए पार्टियां बेकार के बहाने बनाती हैं।
मतदाता आसानी से भूल जाते हैं कि उनसे क्या वादे किए गए थे, इसलिए इन चुनावों में बड़े-बड़े वादे करना मायने नही रखता। चुनाव सुधारों को लेकर राजनीतिक दल भी गंभीर नहीं हैं क्योंकि उन्हें पता है कि चुनाव सुधार तो एक दिन निष्प्रभावी हो जाएंगे। हालांकि ऐसे सुधारों से चुनावों में धनबल व भुजबल के प्रयोग पर अंकुश जरूर लग सकता है। सही मायने में यदि राजनीतिक दलों के घोषणा पत्रों का कोई अर्थ ही नही है तो उन्हें गलत ठहरा देना चाहिए। जस्टिस दीपक मिश्रा जो उस वक्त तक मुख्य न्यायाधीश नहीं बने थे, उन्होंने भी चुनाव मैदान में उतरने वाले उम्मीदवारों को चेताया था कि वे घोषणा पत्रों को मात्र ‘निवेश’ न समझें।
मतदाता ऐसे उम्मीदवारों को चुनें जो नैतिक मूल्यों और सिद्धांतों का पालन करते हों न कि घोषणा पत्रों के आधार पर जीत की उम्मीद रखते हों। अगर पिछले कुछ दशकों में जारी घोषणा पत्रों पर अमल किया गया होता तो देश में असमानता, गरीबी और सामाजिक अन्याय अतीत की बात हो गई होती।