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चुनावी वादे पूरे करने की हो बाध्यता

राजनीतिक दलों को लगता है कि मतदाताओं को प्रलोभन भरे वादों के जरिए रिझाया जा सकता है।

May 09, 2018 / 09:32 am

सुनील शर्मा

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– अतुल कौशिश, वरिष्ठ पत्रकार

चुनावों में हर पार्टी घोषणा पत्र के माध्यम से जनता के साथ कुछ वादे करती है। सच्चाई यह है कि पिछले कुछ वर्षों से ये घोषणा पत्र खोखले वादे भरे चुनावी जुमलों का दस्तावेज बन कर रह गए हैं। बहुजन समाज पार्टी की आलोचना इस बात को लेकर होती रही है कि वह पार्टी का घोषणा पत्र जारी नहीं करती। लेकिन जब ये घोषणा पत्र बेकार के वादों का पर्याय बन कर रह जाए तो उनका क्या औचित्य है? ज्यादातर पार्टियों के घोषणा पत्रों में करीब- करीब एक जैसे वादों की फेहरिस्त देखने को मिलती है। कर्जमाफी, मुफ्त स्मार्टफोन, लैपटॉप व अन्य वस्तुएं चुनाव जीतने के बाद देने की घोषणाएं आम है।
कर्नाटक विधानसभा चुनाव भी इन लोकलुभावन वादों से अछूते नहीं हैं। राजनीतिक दलों को लगता है कि मतदाताओं को प्रलोभन देकर रिझाया जा सकता है। यह सर्वविदित तथ्य है कि घोषणा पत्रों के सभी वादे कभी पूरे किए ही नहीं जाते। ऐसे में चुनाव सुधारों का यह सही वक्त है जिसमें राजनीतिक दल जनता से ऐसे वादे न कर पाएं जिन्हें वह पूरा नहीं कर सकती। अप्रेल 2017 में ‘चुनाव सुधार व चुनावी मुद्दों’ पर आयोजित एक सेमिनार में तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश जस्टिस जे.एस. खेहर ने तत्कालीन राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी की मौजूदगी में राजनीतिक दलों से कहा था कि उन्हें घोषणा पत्र में अधूरे छोड़े गए वादों के प्रति जवाबदेह होना चाहिए। वादे पूरे न कर पाने के लिए पार्टियां बेकार के बहाने बनाती हैं।
मतदाता आसानी से भूल जाते हैं कि उनसे क्या वादे किए गए थे, इसलिए इन चुनावों में बड़े-बड़े वादे करना मायने नही रखता। चुनाव सुधारों को लेकर राजनीतिक दल भी गंभीर नहीं हैं क्योंकि उन्हें पता है कि चुनाव सुधार तो एक दिन निष्प्रभावी हो जाएंगे। हालांकि ऐसे सुधारों से चुनावों में धनबल व भुजबल के प्रयोग पर अंकुश जरूर लग सकता है। सही मायने में यदि राजनीतिक दलों के घोषणा पत्रों का कोई अर्थ ही नही है तो उन्हें गलत ठहरा देना चाहिए। जस्टिस दीपक मिश्रा जो उस वक्त तक मुख्य न्यायाधीश नहीं बने थे, उन्होंने भी चुनाव मैदान में उतरने वाले उम्मीदवारों को चेताया था कि वे घोषणा पत्रों को मात्र ‘निवेश’ न समझें।
मतदाता ऐसे उम्मीदवारों को चुनें जो नैतिक मूल्यों और सिद्धांतों का पालन करते हों न कि घोषणा पत्रों के आधार पर जीत की उम्मीद रखते हों। अगर पिछले कुछ दशकों में जारी घोषणा पत्रों पर अमल किया गया होता तो देश में असमानता, गरीबी और सामाजिक अन्याय अतीत की बात हो गई होती।

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