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अवसर के साथ क्षमता से ही मिलती है पहचान

ह विडम्बना ही है कि देश के राजनीतिक दलों में बड़ा हिस्सा अनुवांशिक तौर पर प्रवेश पाए लोगों का है।

Dec 10, 2017 / 03:55 pm

सुनील शर्मा

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– डॉ. महेश भारद्वाज, स्वतंत्र टिप्पणीकार

यह माना जाता है कि इंसान स्वभावत: महत्वाकांक्षी होता है ऐसे में उसका इस संभ्रांत वर्ग में स्थान पाने के लिए प्रयत्नशील होना वाजिब है, इसीलिए संभ्रांत वर्ग में प्रवेश को लेकर होड़ मचना भी स्वाभाविक है।
इन दिनों देश में राजनीति में वंशवाद को लेकर बहस जोरों पर हैं। यह विडम्बना ही है कि देश के राजनीतिक दलों में बड़ा हिस्सा अनुवांशिक तौर पर प्रवेश पाए लोगों का है। वहीं दूसरी ओर आर्थिक जगत से भी खबर आई है कि दुनिया के आधे संसाधनों पर मात्र एक प्रतिशत लोगों का स्वामित्व है और यह अनुपात मंदी के दौर में भी तेजी से बढ़ा है। वर्ष 2008 मे वैश्विक संसाधनो और संपत्ति पर जहां इन एक प्रतिशत लोगों का स्वामित्व 42 प्रतिशत था वहीं अब वर्ष 2017 मे यह बढक़र 50 प्रतिशत के करीब हो गया है। अमीर और अमीर होते जा रहे हैं, गरीब और गरीब।
आर्थिक क्षेत्र के इन एक प्रतिशत लोगों में भी अनुवांशिक तौर पर शामिल लोगों की अच्छी खासी तादाद है। वंशवाद का यह सिलसिला सिर्फ राजनीतिक और आर्थिक क्षेत्रों तक ही सीमित नहीं है बल्कि सांस्कृतिक, साहित्यिक, आध्यात्मिक इत्यादि क्षेत्रों पर भी नजर डालें तो तस्वीर कमोबेश ऐसी ही मिलेगी। समाज के विभिन्न क्षेत्रों का नेतृत्व इन चंद लोगों के पास होता है और ये ही समाज को दिशा देते हैं। हमें यह समझना होगा कि ये लोग व्यक्तिगत उन्नति के साथ-साथ सामाजिक उन्नति के उत्तरदायित्व का भी निर्वहन करते हैं।
वंशवाद के अलावा, इन क्षेत्रों में बेहतर योगदान देने वाले सामान्य पृष्ठभूमि के परिश्रमी और प्रतिभाशाली नवागंतुकों के लिए भी संभ्रांत वर्ग में प्रवेश पाने के अवसर सैद्धांतिक और व्यावहारिक तौर पर खुले रहते हैं। इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि किसी भी समाज की प्रगति के लिए ऐसे अवसरों की उपलब्धता बेहद जरूरी होती है। अवसरों की यह उपलब्धता किसी समाज में उदार तो किसी में संकुचित हो सकती है। चूंकि इंसान स्वभावत: महत्वाकांक्षी होता है ऐसे में उसका इस संभ्रांत वर्ग में स्थान पाने के लिए प्रयत्नशील होना वाजिब है, इसीलिए संभ्रांत वर्ग में प्रवेश को लेकर होड़ मचना भी स्वाभाविक है।
फिर संभ्रांत वर्ग में बने रहना, ऊंचे नीचे पायदान पर टिके रहना और खिसकना बहुत से कारणों पर निर्भर करता है। जो लोग स्वयं के परिश्रम से अपने क्षेत्र के संभ्रांत बने होते हैं वो तो जब तक कूवत रखते हैं तब तक अपना स्थान पर टिके रहते हैं। अनुवांशिक कारणों से संभ्रांत बने लोगों के लिए भी अपने स्थान पर बने रहना, ऊंचे पायदान पर जाना या नीचे ढलना उनके अपनी व्यक्तिगत प्रतिभा और प्रदर्शन पर निर्भर करता है। अल्पकाल के लिए भले ही ऐसे कुछ लोग अपने स्तर पर बने रहें, लेकिन यह सिलसिला ज्यादा लंबे समय तक चलने वाला नहीं होता है। अंत में प्रतिभा को ही सम्मान मिलता है।

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