सुखाड़िया सच्चे अर्थों में जननेता थे। उन जैसी कार्यप्रणाली और प्रदेश की विकास योजनाओं को मूर्त रूप देने का अहर्निश चिंतन आज के राजनेताओं में कम ही देखने को मिलता है। अपने शासन काल में उन्होंने प्रदेश में गांव-गांव तक दौरे किए और जनसमस्याओं को नजदीकी से देखने की न केवल कोशिश की बल्कि उनके समाधान के जतन भी खूब किए। जयपुर में रहते हुए सुबह ठीक छह बजे से जनता से मुलाकात का उनका नियमित क्रम होता था। उनसे मिलने वाला आखिरी व्यक्ति अपनी बात न कह दे, तब तक यह क्रम जारी रहता था।
उस दौर में न तो सरकारी विमान होते थे और न ही आज की तरह महंगी वातानुकूलित कारें। आज की तरह कारों का काफिला भी नहीं। सिर्फ एक वाहन मुख्यमंत्री की सुरक्षा की दृष्टि से आगे चलता था। अपने दौरे के समय वे जिस किसी भी मार्ग से गुजरते थे और वहां किसी बस स्टैंड पर छात्रों अथवा यात्रियों को खड़ा देखते तो तुरन्त गाड़ी रुकवाकर यह पूछना नहीं भूलते थे कि आपके यहां बसें आती हैं अथवा नहीं? पटवारी व अध्यापक कब आते हैं? वर्षा इधर कैसी हुई और फसल कैसी है? वे अपना भोजन भी साथ लेकर चलते थे। मार्ग में जहां कहीं किसी खेत में कुएं से सिंचाई चल रही हो और पास में छायादार कोई वृक्ष मिल जाता तो उसके नीचे जमीन पर दरी बिछाकर सबके साथ भोजन करने में भी संकोच नहीं करते थे। सुखाड़िया वर्षाकाल में प्रदेश केे हर कोने में वर्षा की स्थिति जानने को लेेकर काफी उत्सकु रहते थे। सभी जिला कलेक्टरों को यह स्थायी निर्देश था कि वे अपने जिलों के विभिन्न स्थानों की वर्षा के बारे में जानकारी से नियमित रूप से मुख्यमंत्री कार्यालय को अवगत कराएंं।
सरकारी धन के इस्तेेमाल में सतर्कता बरतने वाले नेता अब कहां नजर आते हैं? उनके कार्यकाल का एक रोचक उदाहरण स्मरण हो आता है। मुख्यमंत्री कार्यालय के एक अधिकारी ने मुख्यमंत्री आवास के लिए सिंगल बेड की जगह तब चलन में आए डबल बेड बनवाने की बात कही। यह भी कहा कि यदि अनुमति हो तो आज ही पीडब्ल्यूडी को आदेश दे दिए जाएं। सुखाड़िया ने मुस्कराते हुए कहा – आज तो मुख्यमंत्री के पद पर हूं और सरकारी खर्च से यह सब हो भी जाएगा। लेकिन जब कल पद पर नहीं रहूंगा तो कैसे काम चलेगा? आज शायद कोई विश्वास नहीं करे लेकिन मुख्यमंत्री रहते हुए भी सुखाड़िया व उनके परिजन लोहे के पाइपों से बने सिंगल बेड वाले पलंग ही इस्तेमाल करते थे। समूचे शासनकाल में मुख्यमंत्री कार्यालय का फर्नीचर भी कभी नहीं बदला। सुखाडिय़ा को कभी पद लिप्सा नहीं रही। वर्ष 1977 में जब पहली बार केन्द्र में मोरारजी देसाई के नेतृत्व में गैर कांग्रेसी सकार बनी तो सुखाड़िया ने उसी दिन नैतिकता के आधार पर इस्तीफा भेज दिया। प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई ने जब सुखाड़िया को टेलीफोन कर कहा कि अभी इतनी जल्दी भी क्या है? तब सुखाड़िया ने स्पष्ट कह दिया कि मैं केवल तीन दिन प्रतीक्षा करूंगा और चौथे दिन पद त्याग कर राजभवन से विदाई ले लूंगा। नैतिकता के आधार पर इस्तीफा देने व अपनी बात पर कायम रहने वाले ऐसे राजनेताओं के उदाहरण अब गिने-चुने ही दिखते हैं।