संयुक्त राष्ट्र ने दुनिया में हर व्यक्ति को जोखिम रहित खाद्य पदार्थ मुहैया कराने के मकसद से विश्व खाद्य दिवस की शुरुआत की थी। भारत समेत कई विकासशील देशों में इस मकसद की मंजिल फिलहाल दूर नजर आती है। विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) के यह आंकड़े चिंता बढ़ाने वाले हैं कि दुनिया में हर साल 60 करोड़ लोग खाद्य जनित बीमारियों की चपेट में आते हैं। इनमें से चार लाख से ज्यादा की मौत हो जाती है। बच्चे इन बीमारियों की चपेट में ज्यादा आ रहे हैं। जाहिर है, बाजार में जो खाद्य पदार्थ बिक रहे हैं, उनमें से कई सेहत के लिहाज से सुरक्षित नहीं हैं। खाद्य और पेय पदार्थ बनाने वाली एक बड़ी विदेशी कंपनी ने हाल ही कबूल किया है कि उसके 60 फीसदी से ज्यादा पदार्थ सेहत की मान्य परिभाषा को पूरा नहीं करते। भारत भी इस कंपनी के लिए बड़ा बाजार है। देश में छह साल पहले इसके नूडल्स में सीसे की अधिकता पाए जाने पर काफी हो-हल्ला हुआ था। सरकार को कुछ समय के लिए इसकी बिक्री पर रोक लगानी पड़ी थी। विदेशी कंपनियां ही नहीं, देशी कारोबारी भी मिलावटखोरी में पीछे नहीं हैं। तीन साल पहले फूड सेफ्टी एंड स्टैंडड्र्स अथॉरिटी ऑफ इंडिया ने सर्वे में चौंकाने वाला खुलासा किया था कि देश में बिक रहा 50 फीसदी दूध मिलावटी पाया गया।
भारत में 2013 में जब खाद्य सुरक्षा कानून बना था, तो उम्मीद जगी थी कि खाद्य सुरक्षा की दिशा में प्रभावी कदम उठाए जाएंगे। बाद में कई राज्यों ने भी खाद्य पदार्थों में मिलावट के खिलाफ कड़े प्रावधान लागू किए। कुछ राज्यों में तो मौत की सजा तक के प्रावधान हैं, पर अब तक ऐसा एक भी मामला सामने नहीं आया कि किसी को मिलावट करने पर कड़ी सजा सुनाई गई हो। घी, तेल, मावा, पनीर, बेसन, मसालों आदि में मिलावट के मामले आए दिन सामने आते रहते हैं। खाद्य-आपूर्ति विभाग और दूसरी सरकारी एजेंसियां सिर्फ पर्व-त्योहार पर सक्रिय नजर आती हैं। इस सक्रियता का मकसद मिलावटखोरी पर लगाम कसना कम, विभागीय लक्ष्यों की खानापूर्ति ज्यादा जान पड़ता है। खाद्य पदार्थों की सतत निगरानी की व्यवस्था बेहद जरूरी है। इसके अभाव में खाद्य सुरक्षा मृग-मरीचिका ही बनी रहेगी।