स्नेहा जी भर रो चुकी और अपना गुस्सा भरपूर शब्दों में बहा चुकी तब उसकी मां ने अपने सीने से हटाया और कहा ‘तेरी सारी बातें सही हैं। अजय की गलती है। पर स्नेहा! समाज अकेली स्त्री को स्वीकार नहीं करता। औरतें उनसे दूर भागती हंै और लफंगों की बन आती है।Ó
‘पर मां आप स्त्री स्वतंत्रता आंदोलन की मुखिया हो और आप ही अजय जैसे कुंठित इंसान के पास लौटने का कह रही है? मैं दबकर नहीं खुलकर सांस लेना चाहती हूं।अनमोल जीवन को सार्थक बनाना चाहती हूं।Ó
‘सही पूछो तो स्त्री की आजादी एक ढोंग है अपने आपको मजबूत दिखाने का। जैसे पुरुष अपनी पत्नी के बिना उपेक्षित नजरों से देखा जाता है वैसे ही स्त्री को भी पुरुष छाया की जरूरत रहती है। पिता, पति या पुत्र की। मेरा अनुभव यही कहता है।Ó
‘होती है होती है, पर वह पुरुष दोस्त कम से कम इंसान जैसा तो हो ना कि ऐसा कूपमंडूक जो औरत को अपने पांव की जूती समझे। मां! मैंने सब सोच कर तय कर लिया है। मैं अपनी ट्रेनिंग पूरी करके अपने बूते पर मुकाम कायम करूंगी। और आप भी मुझे समाज की दुहाई देकर मेरा हौसला ना तोडऩा। मेरा हौसला और मेरे ये कदम मेरी नन्हीं बेटी का भी भविष्य भी तो निर्धारित करेगें।Ó