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ब्लूमबर्ग से… बच्चों की पढ़ाई-लिखाई के साथ क्रूर प्रयोग बंद किए जाएं

महामारी और शिक्षा: स्कूलों को लेकर अलग-अलग रुख के दीर्घकालिक प्रभाव होंगे। डिजिटल दुनिया को न समझने वालों को शिक्षा से कोई सरोकार ही नहीं रखना चाहिए। अगर राष्ट्रों को दोबारा कोई सामाजिक-आर्थिक प्रयोग करना हो तो उसे बच्चों पर न करके वयस्कों पर करें जो मतदान कर सकते हैं।

नई दिल्लीDec 06, 2021 / 10:19 am

Patrika Desk

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नई दिल्ली। विश्वभर में युवाओं पर बिना सावधानी बरते एक सामाजिक-आर्थिक प्रयोग किया जा रहा है। ऐसा निष्ठुर, अमानवीय प्रयोग जिस पर सामान्य परिस्थितियों में प्रतिबंध लगाना जरूरी हो जाए। महामारी पर नियंत्रण के लिए बहुत से देशों ने पिछले दो सालों से बार-बार कुछ समय के लिए स्कूल बंद किए हैै। कुछ ने इस उपाय पर ज्यादा भरोसा किया तो कुछ ने कम और सबका तरीका अलग था। मानो इस बात का परीक्षण कर रहे हों कि कुछ बच्चों को शिक्षा से वंचित कर दें तो क्या दीर्घकाल में निजी तौर पर, समाजों और राष्ट्रों पर यह कैसे प्रभाव के रूप में सामने आता है।
इसमें क्या क्रूर और अमानवीय है, यह जाहिर होना चाहिए। अध्ययन के मुख्य आधार बच्चों को चुनने के लिए कभी विकल्प दिए ही नहीं गए। बस उन्होंने खुद को एक राष्ट्र, स्कूल डिस्ट्रिक्ट, घर और परिवार में पाया और फिर नतीजों का सामना करने को मजबूर हुए। कई बच्चों के लिए ये नतीजे काफी गंभीर रहे होंगे। म्यूनिख के आइफो इंस्टीट्यूट के आर्थिक थिंक टैंक में शामिल वेरा फ्रु एंडल, क्लारा स्टीग्लर और लैरिसा जिएरो भावी अध्ययन के लिए मानो जमीन तैयार कर रहे हैं।
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अपने एक नए शोध पत्र में उन्होंने यूरोपीय संघ के सात देशों का तुलनात्मक अध्ययन किया है। ये हैं पोलैंड, जर्मनी, फ्रांस, स्पेन, स्वीडन, ऑस्ट्रिया और नीदरलैंड्स। इनमें एक छोर पर है स्वीडन, जो इस बात के लिए ख्यात (या कुख्यात, आपके दृष्टिकोण पर निर्भर करता है) हुआ कि वहां कोरोना वायरस को लेकर कोई खास सख्ती नहीं बरती गई और बड़े पैमाने पर स्कूलों को खुला रखा गया।
भयावह संक्रमण विस्फोट के बावजूद फ्रांस और स्पेन में यथासंभव स्कूल खोले रखने पर जोर रहा, जबकि उन्होंने वयस्कों की गतिविधियों पर ज्यादा गंभीर प्रतिबंध लगाए। ऑस्ट्रिया और नीदरलैंड्स में अव्यवस्थाएं फैलीं। नीदरलैंड्स में स्कूल आंशिक तौर पर बंद रखे गए और वहां पारियों में कक्षाएं लगाई गईं। जर्मनी और पोलैंड में बच्चों को सबसे ज्यादा समय तक घर पर रखा गया।
कई सर्वे में अभिभावकों ने पुष्टि की कि बच्चे जितना ज्यादा समय घर पर रहे, उतना ही कम समय सीखने में बिताया। इस संदर्भ में स्क्रीन दोस्त की बजाय अक्सर दुश्मन साबित हुईं। लेकिन बात स्कूलों को भौतिक रूप से बंद करने की अवधि की ही नहीं है। गुणवत्ता के अंतर ने भी बड़ी भूमिका निभाई जो इन देशों के डिजिटल ढांचे पर निर्भर थी। इस समूह में स्वीडन शीर्ष पर रहा, जिसके 80 प्रतिशत स्कूल प्राचार्यों ने कहा कि वे ऑनलाइन लर्निंग प्लेटफार्म के लिए तुरंत तैयार थे। जर्मनी सबसे पीछे रहा, जहां तीन में से एक ही प्राचार्य ऐसा कह सके।
छात्रों में भी ऐसा ही फर्क देखने को मिला। जर्मनी के बच्चों को दोतरफा नुकसान हुआ, संख्यात्मक व गुणात्मक। वास्तविक पढ़ाई से तुलना मुश्किल है। परन्तु जाहिर सी बात है कि बच्चों के बीच काफी फर्क है। न केवल पढऩे और गणित में, बल्कि सामाजिक व रचनात्मक कौशल में भी। मेरे बच्चों के स्कूल में शिक्षकों ने बताया कि खास तौर पर लड़कों की फाइन-मोटर स्किल खराब है क्योंकि वे हाथ से काफी कम लिखते हैं व टाइपिंग ज्यादा करते हैं।
एक डच अध्ययन के अनुसार, नीदरलैंड्स में 2020 में किए गए बंद के चलते पढ़ाई में शैक्षिक वर्ष के करीब 20 प्रतिशत का नुकसान हुआ। या यों कहें कि ठीक उतना, जितना कि बच्चे घर पर रहे। अनुमान लगाया जा सकता है कि उन देशों में कितना नुकसान हुआ होगा, जहां स्कूल लम्बे समय के लिए बंद रहे व ऑनलाइन पढ़ाई भी इतनी अच्छी नहीं हुई।
सबसे बड़ा शिक्षा-विज्ञान संबंधी सवाल यह कि क्या शिक्षक, अभिभावक, व नीति निर्धारक मिलकर नुकसान की भरपाई कर सकते हैं? कुछ हद तक जवाब है – हां। फ्रांस ने जरूर पहले दौर के बंद के चलते पढऩे की क्षमता व गणित विषय में हुए नुकसान की भरपाई की है, कम से कम शिक्षित परिवारों के छात्रों के लिए। गरीब बच्चों के मामले में यह मुश्किल होगा।
सवाल और भी हैं। कई बच्चों को स्कूल बंद रहने के दौरान मानसिक समस्याओं का सामना करना पड़ा। यह सही है कि जो बच्चे कम पढ़ते हैं, वे कम ही उपलब्धियां हासिल करते हैं। ऐसे बच्चे अपने जीवन में वे कितनी आय का नुकसान उठाएंगे? कई बेरोजगार होंगे या योग्यता से कम दर्जे की नौकरी कर रहे होंगे, और उन्हें सरकारी लाभ पर निर्भर रहना होगा।
कुछ ही होंगे जो अत्याधुनिक अनुसंधान कर स्टार्ट-अप चला सकेंगे। असमानता बढ़ेगी क्योंकि संपन्न परिवारों के बच्चे पढ़ाई में हुए नुकसान की भरपाई कर लेंगे और गरीब घरों के बच्चे पिछड़ जाएंगे। इनमें से कितने ही जनवादियों का शिकार हो जाएंगे, चरम दक्षिण या वाम की तरफ रुख करेंगे?
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एक बात तय है कि स्कूल बंद रहने के सामाजिक-आर्थिक प्रभाव, दीर्घकालिक होंगे, जो महामारी के बाद भी देर तक सामने आते रहेंगे। और बातें समान रहीं तो यह अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है कि भविष्य में स्वीडन जैसे देश, जर्मनी जैसे देशों से बेहतर प्रदर्शन करेंगे। चूंकि अभी महामारी खत्म में देर है, कुछ तथ्य स्पष्ट हैं: पहला, शिक्षा प्रत्येक व्यक्ति और समाज के लिए वरदान है, ठीक वैसे ही, जैसे कि स्वास्थ्य, इसलिए दोबारा इसके साथ खिलवाड़ न हो।
दूसरा, डिजिटल दुनिया को न समझने वालों को शिक्षा से कोई सरोकार ही नहीं रखना चाहिए। तीसरा, अगर राष्ट्रों को दोबारा कोई सामाजिक-आर्थिक प्रयोग करना हो तो उसे बच्चों पर न करके वयस्कों पर करें जो मतदान कर सकते हैं।
एंड्रियाज क्लथ
(स्तम्भकार, ‘हैनडल्सब्लैट ग्लोबल’ के एडिटर-इन-चीफ रह चुके हैं और ‘इकोनॉमिस्ट’ के लिए लिखते रहे हैं। ‘हैनिबल एंड मी: वॉट हिस्ट्रीज ग्रेटेस्ट मिलिट्री स्ट्रेटेजिस्टकैन टीच ‘अस’ अबाउट सक्सेस एंड फेल्योर’ के लेखक)

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