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संकट में भी छिपे हैं अवसर

कई विश्लेषकों का अनुमान है कि विश्व एक और शीत युद्ध की ओर अग्रसर हो रहा है। ऐसे में अमरीका और चीन दोनों वैश्वीकरण से जैसे-जैसे दूर होंगे, भारत की भूमिका और अहम हो जाएगी। एक उपाय है जिससे भारत इस संकट को खुद के लिए मौके में बदल सकता है – व्यापार शर्तों का उदारीकरण।

Dec 20, 2018 / 07:43 pm

dilip chaturvedi

Globalization

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प्रणय कोटस्थाने, नीति विश्लेषक

विश्व व्यवस्था के घटनाक्रम में हाल ही तीव्रता से बदलाव हुए हैं। अमरीका और चीन के बीच में 1971 से शुरू हुआ तालमेल का सिलसिला आज एक शीत युद्ध में तब्दील हो गया है। चूंकि आज चीन विश्व का दूसरा सबसे शक्तिशाली देश है, अमरीका और उसके रिश्तों में आए बदलाव का असर पूरे विश्व पर पड़ रहा है। हाल ही में हमने देखा कि कनाडा ने अमेरिका के दबाव में एक बड़ी चीनी कंपनी के सीएफओ को हिरासत में ले लिया। उसके जवाब में चीन ने कनाडा के ही एक उद्योगपति, और एक पूर्व राजनयिक को हिरासत में ले लिया है। यह संकेत इस बात का है कि चीन और अमेरिका के बीच यह शीत युद्ध जारी रहेगा, और दोनों में से किसी एक का पक्ष लेने वाले अन्य देशो को भी अंजाम भुगतने होंगे।

राजनीतिक तौर पर स्पष्ट हो चुका है कि इस नई व्यवस्था में अमरीका पिछले 30 साल के प्रभुत्व को बनाए नहीं रख सकता। सैन्य रूप से शायद अगले दो-तीन दशकों तक अमरीका विश्व का सबसे शक्तिशाली देश बना रहेगा, पर आर्थिक तौर पर उसे चीन हर क्षेत्र में भरपूर चुनौती देगा। दिलचस्प यह है कि चीन की वर्तमान समृद्धि में अमरीका का ही बहुत बड़ा योगदान रहा है। शुरुआती दौर में अमरीका ने चीन-सोवियत यूनियन संधि को तोडऩे के लिए चीन को अपनी ओर खींचा। सोवियत यूनियन चरमरा गया, फिर भी अमरीका का चीन को समर्थन इस आशा के साथ बना रहा कि चीन धीरे-धीरे अमरीकी-प्रभुत्व वाली व्यवस्था में समा जाएगा। नतीजतन, चीन टेक्नोलॉजी चोरी, मानवाधिकार उल्लंघन, और डरा-धमका कर क्षेत्रीय विस्तार में लगा रहा और पूरे विश्व ने अपनी आंखें मूंद लीं।

अमरीका का चीन की ओर नजरिया तब बदलने लगा, जब चीन पूर्व एशिया में अमरीका के मित्र-राष्ट्रों को खुलेआम धमकाने लगा। साथ ही चीन ने शंघाई कोऑपरेशन ऑर्गेनाइजेशन (एससीओ) और एशिया इन्वेस्टमेंट इंफ्रास्ट्रक्चर बैंक (एआइआइबी) जैसे संस्थानों को खड़ा कर साबित कर दिया कि वह एक नई विश्व व्यवस्था की खोज में है। शी जिनपिंग ने इस टकराव को तीव्रता दे दी। कई विश्लेषकों का अनुमान है कि विश्व एक और शीत युद्ध की ओर अग्रसर हो रहा है। अमरीकी उपराष्ट्रपति का अक्टूबर में चीन पर सीधा निशाना साधते हुए दिया गया भाषण इस नए युद्ध के शंखनाद जैसा है।

शीत युद्ध वाली विश्व व्यवस्था में दुनिया दो गुटों में बंट जाएगी। परमाणु हथियारों के चलते प्रत्यक्ष युद्ध की संभावनाएं काफी कम रहेंगी, पर दोनों गुट एक-दूसरे पर नए हथकंडे अपनाने की कोई कसर नहीं छोड़ेंगे। रूस के अमरीकी चुनावों को प्रभावित करने का तरीका ग्लोबल हो जाएगा। साइबर युद्ध, प्रचार युद्ध और आतंकवाद जैसे औजार दोनों गुट एक-दूसरे पर प्रयोग करना चाहेंगे। संयुक्त राष्ट्र और संबंधित संस्थानों की वैधता न के बराबर रह जाएगी, और जलवायु परिवर्तन जैसी वैश्विक समस्याओं पर बातचीत कम हो जाएगी। आर्थिक रूप से यह युद्ध हमें निकट भविष्य में मंदी की ओर ले जा सकता है। आयात शुल्कों का बढऩा तो सिर्फ शुरुआत है। आगे जाकर ये आर्थिक प्रतिबंध का रूप धारण कर सकते हैं और अर्टिफिशियल इंटेलिजेंस जैसी तकनीक भी रफ्तार पकड़ सकती है।

भारत की विदेश नीति का लक्ष्य है समस्त भारतीयों के लिए शांति और समृद्धि – जिसे अर्थशास्त्र में ‘योगक्षेम:Ó कहा गया है। एक शीत युद्ध वाली विश्व व्यवस्था इस लक्ष्य के अनुकूल नहीं होगी। बिगड़ती विश्व सुरक्षा के चलते भारत को रक्षा क्षेत्र पर ध्यान काफी बढ़ाना पड़ेगा, जिससे आर्थिक समृद्धि के सुधारों की गति धीमी हो सकती है। लेकिन इस रात की एक सुबह भी है – दोनों प्रतिद्वंद्वी गुट भारत जैसे बड़ेे देश को अपनी टीम में लाने के लिए प्रलोभन देंगे। यही भारत के लिए एकमात्र मौका है – सफलता इस नई विश्व व्यवस्था को भलीभांति मैनेज करने पर निर्भर होगी।

संभावित शीत युद्ध के माहौल में भारत, चीन की सफलता के तरीकों की नकल नहीं कर सकता। चीन, जापान और दूसरे पूर्वी एशिया के देशों ने व्यापार को अपनी समृद्धि का मुख्य स्तम्भ बनाया था, लेकिन संरक्षणवाद की स्थिति में यह विकल्प बंद हो जाएगा और भारत को एक नया रास्ता खोजना होगा। अमरीका और चीन दोनों वैश्वीकरण से जैसे-जैसे दूर होंगे, भारत की भूमिका और भी जरूरी हो जाएगी। एक उपाय है जिससे भारत इस संकट को खुद के लिए मौके में तब्दील कर सकता है – व्यापार शर्तों का उदारीकरण। इस मुश्किल दौर में अपने आयात शुल्कों को एकतरफा घटाने से भारत को तीन सीधे फायदे होंगे। एक, भारतीय ग्राहकों को व्यापार युद्ध की महंगाई से बचाया जा सकेगा। दो, आयात शुल्कों को एकतरफा घटाने का फायदा भारत के उत्पादकों को भी होगा। और तीन, भारत में दीर्घकालीन निवेश बढ़ेगा।

इसके अलावा हमें घरेलू अर्थव्यवस्था में मूल परिवर्तन लाने होंगे। आर्थिक वृद्धि के साथ-साथ हमें रोजगार निर्माण पर ध्यान देना होगा। ज्यादा से ज्यादा किसानों को जल्द से जल्द दूसरे व्यवसाय दिलाने होंगे। शीत युद्ध के चलते बेरोजगारी बढऩे पर हमें सामाजिक सुरक्षा व्यवस्था को तैयार करना होगा।

भारत एक और अहम भूमिका निभा सकता है तकनीकी क्षेत्र में, जहां उसने बखूबी अपना लोहा मनवाया है दुनिया भर में। भारत को इसका लाभ उठाने की तैयारी करनी चाहिए। राहत की बात यह है कि एक नए शीत युद्धकाल में भी भारत को किसी एक को चुनने की जरूरत नहीं होगी – हमें दोनों गुटों के झगड़े का फायदा उठाने की कोशिश करनी होगी। न सिर्फ अमरीका और चीन, बल्कि रूस, ईरान और ऑस्ट्रेलिया जैसे देश भी भारत से रिश्ते बेहतर करने की कोशिश करेंगे। यह स्वर्णिम अवसर होगा भारत के लिए।
(साथ में टेक्नोलॉजी प्रोफेशनल हेमंत चांडक।)

(तक्षशिला संस्थान, बेंगलूरु में भू-रणनीति कार्यक्रम के प्रमुख। भू-राजनीति, लोक नीति, अर्थशास्त्र और शहरी मामलों पर भी शोध कार्य।)

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