ओपिनियन

सत्ता मालदार

सरकारों का काम राजस्व से नहीं चल पाता। इसके लिए एक रास्ता निकाल लिया- व्यापार का। सरकार, सेवा कार्य त्यागकर कानूनों की आड़ में व्यापार करने लग गई। जनता के हाथ से कमाई छीनने लग गई। कमाई के हर क्षेत्र में बोलियां लगने लग गईं।

Apr 30, 2021 / 06:44 am

Gulab Kothari

– गुलाब कोठारी
मर्यादाहीन महाराजाओं से छुटकारा पाने तथा गुलामी से मुक्त रहने के लिए हमने लोकतंत्र के रूप में स्वतंत्रता को चुना था। कैसी मर्यादित स्वरूप की अवधारणा थी? ऐसी व्यवस्था (राज नहीं) जो जनता की,जनता द्वारा और जनता के लिए हो।
जनता अपने प्रतिनिधि चुने और उनको नियमन के अधिकार तथा व्यवस्था के लिए धन उपलब्ध कराए। नागरिकों का व देश का सम्मान के साथ सर्वांगीण विकास हो। जो पिछले सत्तर वर्षों से हो रहा है। कई देश हमारे बाद स्वतंत्र हुए। अच्छा रहेगा,उनके विकास से हमारे विकास की तुलना न करें।
शिक्षा ने व्यक्ति का अस्तित्व ही गौण कर दिया। टीवी, इंटरनेट और मोबाइल फोन ने भौतिकवाद की आग में घी डाला। जीवन का बाहरी रूप अलग तथा भीतर का संसार ही अलग हो गया। कथनी और करनी बिछुड़ गए। मानव और दानव मानों एक ही शरीर में रहने लगे हों। दानव तीन चौथाई। धन जैसी निर्जीव वस्तु ने चेतना को आवरित कर दिया। इसके स्थान पर जड़ शरीर, जीवन का आधार बन गया। जीवन में जड़ता फैल गई। व्यक्ति ही समाज की इकाई होता है, देश की इकाई होता है। अत: देश की चेतना को विदेशी विकासवाद, भौतिकवाद, उपभोक्तावाद, एवं स्वच्छंदता ने सुप्त सा कर दिया। बुराइयां जल्दी आकर्षित करती हैं। ग्रहण करने में भी सहजता होती है। बस, अज्ञान का अंधकार चाहिए।
अज्ञान का अर्थ है-अविद्या, अस्मिता, राग-द्वेष व अभिनिवेश। आज लोकतंत्र का संपूर्ण व्यवहार संकल्प विरोधी हो रहा है। भले ही स्वतंत्र सत्ता का आरंभ राष्ट्रवाद और विकास की अवधारणा के साथ हुआ था, किन्तु विदेशी नकल, ग्लैमर और धन की अमर्यादित लालसा ने सत्ता को भी शिक्षा की तरह पेट से जोड़ दिया। सामाजिक चिंतन कागजों तक सिमट गया। इसका उदाहरण है कि राजस्व के एक रुपए में से जनता के लिए एक पैसा भी नहीं बचता। विकास केवल उधार पर आधारित रह गया। कई विभागों को तो अपना खर्च चलाने के लिए भी उधार लेना पड़ रहा है।
यह तो हुआ एक पक्ष, यह तो निश्चित हो गया कि सरकारों का काम राजस्व से नहीं चल पाता। इसके लिए एक रास्ता निकाल लिया- व्यापार का। सरकार, सेवा कार्य त्यागकर कानूनों की आड़ में व्यापार करने लग गई। जनता के हाथ से कमाई छीनने लग गई। कमाई के हर क्षेत्र में बोलियां लगने लग गईं। इन सभी क्षेत्रों में नियमों से अच्छा काम चल सकता है, किन्तु सरकार को आर्थिक सहायता चाहिए। पेट भरने के लिए राजस्व कम पडऩे लगा है।
राजस्थान में बिजली बिल में अरबन सेस, जलसंरक्षण उपकर व दूसरे सरचार्ज लगाकर १७३० करोड़ रुपए वसूले जाते हैं। यहां बिजली कंपनियों का घाटा ८६ हजार करोड़ रुपए से ज्यादा पहुंच चुका। पानी के बिलों से ५५० करोड़ रुपए की आमद होती है और 3800 करोड़ रुपए का खर्चा है। बड़ी रकम वेतन-भत्तों पर ही खर्च हो जाती है। शहरी इंफ्रास्ट्रक्चर के नाम पर नगरीय निकाय, नगरीय विकास कर ले रहे हैं, डिस्कॉम्स अरबन सेस ले रहे हैं और जलदाय विभाग अरबन इंफ्रास्ट्रक्चर शुल्क वसूल रहा है।
आज देश-प्रदेश में चारों ओर सड़कों का तथा फ्लाईओवर का जाल बिछ रहा है। लाखों करोड़ का सालाना बजट बनता है। कार्य समय पर पूरा करते ही नहीं और प्रोजेक्ट की लागत बढ़ाते जाते हैं। एक रुपए का काम सौ रुपए में- ठेकेदार से। सड़क तथा पुल निर्माण विभागों का वेतन अलग से। घटिया निर्माण सामग्री के कारण लोगों की जान जाएं वो अलग। व्यापार ही विकास है। यदि हमारे प्रतिनिधियों और सेवकों में, मालिक (जनता) के प्रति निष्ठा के स्थान पर अनिष्ट करने का भाव आ जाए, तो ऐसे नौकरों को क्या कहें? जो खुद की ही परवाह करते हैं, वे देश के क्या काम आएंगे?
चाहे बात आबकारी की हो, खनन की हो, भूमि आवंटन की हो, दूरसंचार या बस रूटों के आवंटन की। हर विभाग व्यापार में व्यस्त हो गया है। नीलामी प्रक्रिया के जरिए खान आवंटन से मोटा राजस्व मिल रहा है। वाहन रजिस्ट्रेशन के समय रोड टैक्स बेहतर सड़कों के नाम पर लिया जा रहा है। टोल टैक्स अलग। शहरों के अंदरुनी हिस्सों तक में टोल बना दिए गए। रजिस्ट्री के लिए स्टॉम्प ड्यूटी के अलावा राज्य सरकार 30 प्रतिशत सरचार्ज भी ले रही है।
इस तरह के व्यापार का एक प्रभाव तो यह पड़ा कि सभी प्राकृतिक संसाधन, सरकारी संपत्तियां तक नीलाम होने लग गईं। लीज के नाम पर कैसे-कैसे खेल होने लगे? उदयपुर के लक्ष्मी विलास होटल का उदाहरण ही काफी है। ये व्यापार करने के ही ढंग हैं। इससे जनता में समृद्धि नहीं आ सकती। वैसे भी इंस्पेक्टरराज का नया रूप और वीभत्स हो गया है। पहले जनता को गलत काम करने के लिए उकसाते हैं, फिर चालू होता है वसूली का मंथली सिस्टम। अवैध निर्माण इसका बड़ा उदाहरण है। खाद्य सामग्री में मिलावट भी प्रमाण है। यदि सरकार व्यापार करना छोड़ दे, तो नीचे का यह जाल स्वत: ही सिमट जाएगा।
आबकारी को ही लें। सरकार एक्साइज ड्यूटी लेती है- वहां तक सही है। राजस्थान में 1600 से ज्यादा शराब की दुकानों की नीलामी के जरिए मोटा राजस्व जुटा रही है सरकार। लेकिन दुकानों की बोली का अधिकार क्यों? यह नागरिकों का अधिकार है। जो मांगे, उसे लाइसेंस दें। फीस की भिन्न-भिन्न श्रेणियां हो सकती हैं। हजारों स्टोर अपने यहां माल बेच सकते हैं। बोली लगाने से तो आधी कमाई सरकार खा जाती है, मोनोपोली प्रतिष्ठित होती है और अवैध व्यापार भी केन्द्रीकृत हो जाता है। शराब के साथ अन्य नशे की सामग्री का भी व्यापार इससे जुड़ जाता है। चारों ओर ऊपर की कमाई का बोलबाला। उपभोक्ता को कितनी कीमत चुकानी पड़ती है, इसका दर्द इस रक्षक सरकार को कैसे हो सकता है? यही हाल हर विभाग में देखने को मिल जाएगा। मूल में ठेका प्रथा ऊपर की कमाई का जरिया है, जिससे हर कार्य की लागत भी बढ़ जाती है। सरकारों का ध्यान सेवा से हटकर इस चिंतन में लग जाता है कि सीधी कमाई कैसे हो? हर आपात स्थिति में सरकारी सेवा, हाथी के बाहरी दांत जैसी लगती है। कोरोना में आज कैसी-कैसी आवाजें आ रहीं है- सरकारों के बारे में। सारी सुविधाएं कहां खो जाती है?
सरकारों को जनहित में अपनी व्यापारिक गतिविधियां बंद करना चाहिए। जनता चुनती है, संचालन करने के लिए। खुद का पालन करने के लिए नहीं। आज जनता बेरोजगार और सत्ता मालदार है, तो यह मानें न मानें शोभा तो नहीं देता।
जैसा नेता, वैसा देश

नालायक बेटे

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