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जैसा नेता, वैसा देश

Published: Apr 28, 2021 07:19:25 am

Submitted by:

Gulab Kothari

जो हिंसकों (माफिया) के बीच और आपातस्थिति में छोड़कर सत्ता के मोह में व्यस्त रहे उसे क्या कहेंगे? हमने देखा, एक चौथाई देश सत्ता के संघर्ष में था तो शेष देश कोरोना की लपटों से बचने के प्रयासों में था।

84 people died due to corona in Rajasthan

84 people died due to corona in Rajasthan

– गुलाब कोठारी

पृथ्वी लोक, मृत्यु लोक है। यहां ब्रह्म के सत्-चित्-आनन्द की सत्ता गौण रहती है। मुख्य तो शरीर की सत्ता (राजपाट) ही है। यहां इसका नाम वाइन, वुमन, वैल्थ है। सत्ता को बचाने और छीनने का प्रयास ही युद्ध का मूल होता है। दोनों ओर से मरते वे ही हैं जिन पर राज किया जाना है। युद्ध का नारा भी एक ही होता है-‘लोगों, सत्ता हमें सौंप दो, भले ही तुम्हें मरना पड़े।’ जो नजारा चुनाव वाले पांच राज्यों का रहा वह लोगों (प्रजा) की मौत का जश्न ही था। लोकतंत्र के तीनों स्तम्भ साक्षी थे। या तो कार्यरत थे या मौन थे। भीष्म पितामह की तरह, जिनके सामने द्रौपदी का चीरहरण हुआ था।
ऋग्वेद का मंत्र है-‘सेदग्निर्यो वनुष्यतो निपाति'(ऋ. ७.१.१५)। अग्नि=नेता वही है जो हिंसकों और विपत्तियों से रक्षा करता है। और, जो हिंसकों (माफिया) के बीच और आपातस्थिति में छोड़कर सत्ता के मोह में व्यस्त रहे उसे क्या कहेंगे? हमने देखा, एक चौथाई देश सत्ता के संघर्ष में था तो शेष देश कोरोना की लपटों से बचने के प्रयासों में था। चुनावों में धन बह रहा था और शेष भारत कंगाली भुगत रहा था। बिना युद्ध क्षेत्र में गए, घर बैठे मर रहा था। हमारा चुनाव आयोग, मौतों के आंकड़े गिन रहा था। इधर हरिद्वार का कुंभ था और उधर उसने मानो चुनाव कराने को ही मुद्दा बना लिया था। जान बचाना उसकी कार्यसूची में था ही नहीं। प.बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के शेष चुनाव एक साथ कराने के अनुरोध को आयोग ने ठुकरा दिया। उत्तरप्रदेश सरकार तो पांच शहरों में लॉकडाउन लगाने के हाईकोर्ट के निर्देश मानने को तैयार ही नहीं हुई। आज इन्हीं शहरों में श्मशान कम पड़ रहे हैं।
सिर्फ चुनाव ही कोरोना मुक्त थे। नेताओं के बचकाने बयान व छींटाक शी देश के मुख्य चुनाव आयुक्त, प्रदेशों के लोकायुक्तों और चुनावी राज्यों के मुख्य चुनाव अधिकारियों के संज्ञान में ही नहीं आई। प्रचार और रैलियों को छोड़ बाकी देश में नित नई गाइड लाइन्स, लॉकडाउन और कफ्र्यू की चर्चाएं थीं। कोरोना गाइड लाइन्स में अब तो इतनी सूचियां जारी होती हैं कि असमंजस बना ही रहता है।
सब जानते थे कि कोरोना की दूसरी लहर आएगी। लेकिन हमारे यहां से तो कोरोना की विधिवत विदाई भी हो चुकी थी। दवाइयां/वैक्सीन बांट चुके थे, देशभर के कई कोरोना सेन्टर बन्द हो चुके थे। ऑक्सीजन उत्पादन के स्वीकृत उद्योग लगे नहीं। कोरोना जिस रफ्तार से फैला उसके लिए किसी को खेद तक नहीं हुआ। अब वीभत्स दृश्य दिखने लगे तो दबी आवाज में सभी सफाई देने लगे हैं। कुछ केन्द्रीय नेता तो यहां तक मानने लगे कि वे सिर्फ भाजपा के ही नेता हैं, दूसरों से उनका कोई सरोकार नहीं। गैर-भाजपा शासित राज्यों को विभिन्न संसाधनों के आवंटन में भी इसी तरह की अवधारणा का अहसास हुआ। कहीं वैक्सीन की कीमतों तो कहीं ऑक्सीजन संयंत्रों से सप्लाई को लेकर विवाद बढ़ा। ऐसी राष्ट्रीय आपदा में देश एक दिखना चाहिए लेकिन राजनीति और फूट ही सामने आई।
केन्द्र सरकार ने एक मई से १८ साल से ज्यादा उम्र के सभी को वैक्सीन लगाने का आदेश जारी कर दिया। कई राज्य सरकारें ये टीके मुफ्त ही लगाएंगी। अस्पतालों में फिर भीड़ उमड़ेगी तो कोरोना ‘वायरल’ होगा। लोगों पर जुर्माने का नया संकट आ पड़ा है। सरकारें करोड़ों कमाने लग गईं।
भले ही चारों ओर आर्थिक संकट के सुर सुनाई दे रहे हों, नेता-अफसरों की तो पांचों अंगुलियां घी में हैं। कहीं कोई कटौती नहीं हुई। सांसद निधि भी पिछले दो वर्षों से जारी नहीं हुई। राजस्थान में ३५० करोड़ आते तो कई तरह की सहायता उपलब्ध होती। यहां भी राजनीति करने की होड़ मचा रखी है। संसाधनों की व्यवस्था का प्रश्न ही खो गया। व्यवस्थाओं में खामियां हर कदम पर हैं लेकिन बयानबाजी में पीडि़तों का दर्द नहीं झलकता। विपक्ष भी मौन था। तैयारियां नहीं हैं तो क्या!
जनता के लिए तो कर्फ्यू है और नेता भीड़ के साथ चलते हैं। राजस्थान के एक भाजपा विधायक (सुमेरपुर) को मास्क न लगाने पर टोका तो पुलिस को ही धमका दिया। बीटीपी के विधायक तो बरात लेकर चल पड़े थे। नेताओं की जिम्मेदारी का अनुमान इससे ही लगाया जा सकता है कि जब पत्रिका ने राजस्थान के १४ मंत्रियों को फोन लगाया, तो दस ने तो उठाया ही नहीं।
विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र पर दुनिया की निगाहें टिकी हैं उसका हमें अहसास ही नहीं। आर्थिक, राजनीतिक, सामाजिक, अनुशासन जैसे सभी क्षेत्रों में हम फेल नजर आ रहे हैं। युवा बेरोजगार, किसान आन्दोलनरत और आम आदमी कोरोना की मार से कराह रहा है। सरकारें संक्रमितों व मौतों के आंकड़े जारी कर रहीं हैं लेकिन श्मशानों के आंकड़े कुछ अलग ही होते हैं। सरकारें विश्वास खो बैठीं। अभी चुनावों के परिणाम भी आने हैं। यही रवैया रहा तो नए आंकड़े सरकारों को भारी पड़ेगे। राजनीति का नशा ज्यादा चलने वाला नहीं। भविष्य के बारे में अफसर-नेता निश्चिन्त हैं कि उनका कुछ नहीं बिगडऩे वाला। तब क्या आज का लोकतंत्र वैसा ही नहीं हो गया, जैसा पहले राजाओं का राज था? लगने लगा है-कुएं से निकले, खाई में गिरे।

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