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महान लोकतंत्र?

संसद और विधानसभाओं के औचित्य पर सवाल खड़ा
क्यों ना हो? सांसदों-विधायकों के आचरण से लगता है कि उन्हें अपने और “अपनो” के
अलावा किसी की चिंता ही नहीं रह गई

Aug 02, 2015 / 11:55 pm

शंकर शर्मा

ambika Soni

ambika Soni

अंबिका सोनी और कुमारी शैलजा को केन्द्रीय मंत्रिमंडल से हटे लम्बा अर्सा हो गया लेकिन दोनों नेता दिल्ली के लुटियन्स में मिला सरकारी बंगला छोड़ने को तैयार नहीं। बंगला नहीं छोड़ने के लिए अदालत के दरवाजे भी खटखटा रहे हैं। अदालत की फटकार के बावजूद असर होता नहीं दिखता। लोकसभा के 27 सांसद एक पांच सितारा होटल में निर्घारित समय से अधिक डेरा जमाए रहे और लोकसभा सचिवालय ने इसके पेटे 5 करोड़ 69 लाख की धनराशि चुकाने से इनकार कर दिया है।

हमारे जनप्रतिनिधियों से जुड़े ये दो मामले राजनीतिज्ञों की कथनी और करनी का अंतर उजागर करने के सबसे अच्छे उदाहरण हैं। मंत्री नहीं रहे लेकिन बंगले का मोह नहीं छूट रहा तो दूसरे सांसद सरकारी मकान आवंटित होने के बावजूद पांच सितारा होटल की सुख-सुविधाओं का मोह नहीं छोड़ पाए।

ये वही नेता हैं जो आम आदमी के दुख-दर्द की बात करते नहीं थकते। करोड़ों लोग भले खुले में रात बिताने को मजबूर हों लेकिन अपने आपको “जनता का सेवक” बताने वाले नेताओं को छोटे बंगले में रहना गवारा नहीं। दूसरी तरफ 10 दिन से संसद ठप पड़ी है। सत्तारूढ़ दल और विपक्ष हंगामे में मशगूल हैं।

विपक्ष संसद चलने नहीं देना चाहता और सरकार इसे चलाने के लिए कदम उठाती नजर नहीं आती। नेता किसी भी दल के हों, अपनी सुख-सुविधाओं के लिए एक मंच पर आते देर नहीं लगाते लेकिन बात देश के करोड़ों लोगों की समस्याएं हल करने की हो तो उनके पास समय नहीं। महान लोकतांत्रिक देश होने का दावा तो हम करते हैं लेकिन क्या इसे लोकतंत्र माना जाए? संसद ही नहीं, राज्यों की विधानसभाओं का हाल भी इससे अलग नहीं है। सिवाए टकराव और एक-दूसरे को नीचा दिखाने के, वहां न तो विधायी कार्य होता है और न जनता के दुख-दर्द पर चर्चा।

तो फिर संसद और विधानसभाओं के औचित्य पर सवाल खड़ा क्यों ना हो? सांसदों-विधायकों के आचरण से तो लगता है कि उन्हें अपने और “अपनो” के अलावा किसी की चिंता ही नहीं रह गई। आम आदमी की याद आती है तो चुनाव से पहले, वो भी दिखाने के लिए। राजनेताओं के इस आचरण से लोकतंत्र तो कमजोर हो ही रहा है,राजनीति के प्रति मोह भी भंग हो रहा है।

संसद में बहस की जगह पूरे कार्यकाल ही टकराव होता रहे तो दूसरे देशों में हमारी छवि क्या बनेगी? दूसरे देश क्या हमारे सबसे बड़ा “लोकतांत्रिक” देश होने का मजाक नहीं बनाएंगे? जनता को उपदेश देने वाले राजनेता अपने आचरण के बारे में तनिक भी क्यों नहीं सोचते? जनता इन सवालों का जवाब जानना चाहती है।

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