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शरीर ही ब्रह्माण्ड:कर्म के विवर्त

Gulab Kothari Article Sharir hi Brahmand: शरीर ही ब्रह्माण्ड’ श्रृंखला में अमृत (ज्ञान) तथा नीचे मृत्यु (कर्म) की व्याख्या समझने के लिए पढ़िए पत्रिका समूह के प्रधान संपादक गुलाब कोठारी का यह विशेष लेख

नई दिल्लीJun 08, 2024 / 05:16 pm

Anand Mani Tripathi

Gulab Kothari Article Sharir hi Brahmand: पंचपर्वा विश्व में सूर्य मध्य में है। सूर्य के ऊपर अमृत (ज्ञान) तथा नीचे मृत्यु (कर्म) तत्त्व प्रधान है। सूर्य में ज्ञान और कर्म दोनों का समन्वय है। पृथ्वी सूर्य का ही उपग्रह है अत: उसमें अमृत भाग का अंश भी अवश्य है। भूपिण्ड का ही उपग्रह चन्द्रमा है जो अत्रिप्राण के सहयोग से उत्पन्न हुआ है। अत: चन्द्रमा भी अमृत-मृत्युमय ही है। सूर्य-चन्द्रमा-पृथ्वी क्रमश: वाक्-अन्न-अन्नाद कहलाते हैं (इन्द्र-सोम-अग्नि)। तीनों अमृत-मृत्युमय हैं। अद्र्धं ह वै प्रजापतेरात्मनो मत्र्यमासीदद्र्धममृतम् अर्थात् प्रजापति का स्वरूप भी आधे भाग से अमृत तथा आधे भाग से मृत्यु कहा गया है। तीनों के कर्म क्रमश: दिव्य-पितर-पार्थिव कहलाते हैं। ये कर्म भी अमृत-मृत्यु रूप दो-दो विभागों में बंटे हैं।
सूर्य देवलोक है-३३ प्राणों से युक्त है। चन्द्रमा पितर लोक है-पितर प्राणों का लोक है, पृथ्वी मनुष्य लोक है। मानव में देव-पितर प्राणों का अंश भी रहता है। अत: तीन कर्म धाराओं का समावेश रहता है। व्यक्ति को किसी न किसी कर्म में अवश्य प्रवृत्त रहना पड़ता है। कर्म मार्ग में प्रवृत्त करने वाली प्रकृति (योगमायात्मिका) के पांच पर्व हैं-स्वयंभू-परमेष्ठी-सूर्य-पृथ्वी-चन्द्रमा। पांचों ही पर्व रस और बल के सम्बन्ध से आत्मा-शरीर दो-दो भागों में विभक्त हैं। आत्मा ब्रह्म है, ज्ञान है। शरीर कर्म है। इसी पंचपर्वा विश्व को आधिदेविक कहा है। यही ज्ञानप्रधान दृष्टि से ब्रह्माश्वत्थ है, कर्मप्रधान दृष्टि से कर्माश्वत्थ है। ब्रह्माश्वत्थ अपरिवर्तनीय है, कर्माश्वत्थ सम्यक्-संसरणशील है। यही संसारवृक्ष कहलाता है।
जीव ब्रह्म-कर्म रूप अव्यय का ही अंश है। इसमें भी अंशी के दोनों भाव-ज्ञान और कर्म हैं। आधिदेविक पुरुष के ब्रह्म-कर्म धातु सम भाव में तथा वैकृतिक आधिभौतिक पुरुष के धातु विषम भाव में रहते हैं। रोदसी त्रिलोकी (भू, भुव:, स्व:) के पार्थिव जीव सर्ग में सूर्य-चन्द्रमा-पृथ्वी के ब्रह्म-कर्म युग्मों की प्रधानता रहती है। इसमें भी सौर ब्रह्म-कर्म मात्रा पूर्ण विकसित होती है तथा सूर्य समभावों के कारण समत्व योग (बुद्धियोग) की प्रतिष्ठा बनता है। चन्द्रमा में ज्ञान मात्रा अद्र्ध विकसित है, कर्म मात्रा पूर्ण विकसित है। पृथ्वी में ज्ञान की अपेक्षा कर्म बलवान है। सूर्य में ज्ञानशक्ति, चन्द्रमा में क्रियाशक्ति तथा पृथ्वी में अर्थशक्ति विकसित है।
पार्थिव प्राणयुक्त होने से मानव का कर्म अर्थ प्रधान रहता है। तमोगुण युक्त अर्थ की आसक्ति ही तामस गति का कारण बनती है। इसके प्रभाव से प्रज्ञाभाग तामसी हो जाता है। अर्थ-काम की प्रधानता के कारण अर्थ संचय तथा इन्द्रिय कामनाओं की तृप्ति ही लक्ष्य होता है। देव-पितर आदि से ऋण लेकर उत्पन्न मानव क्या करता है? पशु की तरह पेट पालना कोई कर्म नहीं। तब तो अर्थजीवी ही अर्थी पर आरुढ़ है। यही स्वार्थी भाव है। धरती का भार है।
अपने स्वार्थ के साथ-साथ दूसरों की भलाई सोचने में चन्द्रमा के पितृ कर्म का विकास ही प्रेरक है। परमार्थ कर्म श्रद्धासूत्र द्वारा पितृ प्राण की प्रेरणा का फल कहा जाता है। इष्ट-आपूर्त-दत्त तीन प्रकार के कर्म होते हैं। स्वजनों के हित के लिए किए कर्म इष्ट हैं। अन्य दरिद्र-अनाथ-असमर्थ लोगों की सहायता-रक्षा करना दत्त कर्म कहा जाता है। समाज के लाभार्थ मन्दिर-तालाब-धर्मशाला आदि बनवाना आपूत्र्त कर्म कहलाता है। सूर्य से प्रकाशित चान्द्र्र पितृ प्राण चित् प्रधान है। चित् प्राण युक्त पितृ कर्म निवृत्ति प्रधान होकर बन्धन मुक्ति करते हैं। जिस भाग में सूर्य का प्रकाश नहीं रहता वह वृत्र प्रधान भाग निम्न कर्म का क्षेत्र कहा जाता है।
चन्द्रमा के समान पृथ्वी का भी आधा भाग सूर्य द्वारा प्रकाशित रहता है, आधा छायाभाग होता है। प्रकाशित भाग अदिति तथा छाया भाग दिति कहलाता है। प्रकाशित भाग में ३३ देवता रहते हैं, जो अग्निप्रधान हैं। दिति भाग में 99 असुर हैं जो सोमप्रधान हैं। अग्नि प्राण अमृत प्राण हैं अत: लौकिक कर्म के बन्धन से मुक्त करने में सहायक हैं या बन्धन ही नहीं करते। दिति प्राण मृत्यु प्राण हैं तथा प्रवृत्ति कर्म के कारक हैं। अमृत कर्म निवृत्ति प्रधान तथा मृत्यु कर्म प्रवृत्ति प्रधान होते हैं। इसलिए यदि कर्म के साथ अमृत को आधार बनाते हुए प्रवृत्त कर्मों को निवृत्ति प्रधान बना दिया जाए, तो ये ही कर्म—असंग या अकर्म बन जाते हैं। इसी को कर्मयोग कहते हैं। इसीलिए कृष्ण गीता में कह रहे हैं कि कर्म की गति गहन है। कर्म-अकर्म और विकर्म तीनों ही जानने योग्य हैं-
कर्मणो ह्यपि बोद्धव्यं बोद्धव्यं च विकर्मण:।
अकर्मणश्च बोद्धव्यं गहना कर्मणो गति:।। (गीता 4.17)
सद् कर्म ही कर्म है। निरर्थक कर्म अकर्म या मन्द कर्म है। शास्त्र विरुद्ध-विकर्म दुष्कर्म कहलाते हैं। तीनों ही कर्म विवर्त बल तत्त्व के विस्तार से अनेक रूप धारण कर लेते हैं। ये तीनों ही कर्म विद्या और अविद्या भाव से युक्त होने से भिन्न-भिन्न फल प्रदान करते हैं। कर्म-अकर्म और विकर्म में से कर्म ही निवृत्तिप्रधान है जबकि अकर्म और विकर्म प्रवृत्तिप्रधान कर्म है।
प्रवृत्त कर्म संस्कार को जन्म देते हैं। इसी से वासना संस्कार का उदय होता है। विद्याजनित प्रवृत्ति कर्म करने वाला जीव दिव्य संस्कार बन्धन से युक्त रहता है और देवयान मार्ग का अधिकारी बनता है। विद्या निरपेक्ष प्रवृत्ति कर्म में पितृ प्राण प्रबल रहता है। आत्मा पितृयान मार्ग पकड़ता है। निवृत्ति-बुद्धि से कर्मजनित संस्कार का जीव के साथ ग्रन्थि बन्धन नहीं हो पाता। अत: विद्यासापेक्ष, विद्या निरपेक्ष तथा लौकिक तीनों निवृत्ति कर्मों से संस्कार बन्धन नहीं होता। संचित संस्कार बन्धन कट जाते हैं। प्रारब्ध भोगने पर आत्मा देवयान गति पाता है। लौकिक-निरर्थक, विरुद्ध कर्मों, स्वार्थ कर्मों से जीव अज्ञान के अंधकार में घिरा रहता है। ऐसा आत्मा पितृयान (यम मार्ग) से नरक की ओर जाता है।
ज्ञान और कर्म दोनों का समन्वय ही शान्ति का कारण है। कृष्ण का बुद्धियोग वैराग्य है। ‘समत्वं योग उच्यते, योग: कर्मसु कौशलम्Ó ही कृष्ण का मन्तव्य है। समत्व का पूर्ण विकास वैराग्य बुद्धियोग से ही सम्बन्ध रखता है। स्वयं कभी यह अभिमान न करें कि, मैं इनका कत्र्ता हूं। फल एवं कामासक्ति का त्याग करते हुए सभी कर्म करने चाहिए। बुद्धियोग में धर्म की प्रधानता है। जीवों में बुद्धि के चार सात्त्विक रूप धर्म, ज्ञान, वैराग्य और ऐश्वर्य हैं। किन्तु वे तामस रूपों अर्थात् अधर्म, अज्ञान, अवैराग्य, अनैश्वर्य से दबे हुए रहते हैं। ईश्वर में केवल चारों सात्विक रूप ही हैं। तामस रूपों का वहाँ स्पर्श भी नहीं होता। अपनी मुक्ति चाहने वाले जीव का कर्तव्य है कि तामस रूपों को दबाकर सात्विक रूपों के साथ योग करे। बुद्धि का सात्विक रूप वैराग्य है। उस वैराग्य के द्वारा ईश्वर से योग करना चाहिए फलाशा से कर्म करना बहुत छोटी श्रेणी का है। क्योंकि फलाशा रखने वाले तो सब देवताओं के सामने कृपण अर्थात् दीन रहा करते हैं। वैराग्य बुद्धि प्राप्त कर लेने वाले की दृष्टि में कोई छोटा-बड़ा रहता ही नहीं। जैसा कि कहा गया है-
तृष्णाञ्चेह परित्यज्य को दरिद्र: क: ईश्वर:।
तस्याश्चेत् प्रसरोदत्तो दास्यं तु शिरसि स्थितम्।।
विद्या भाव के साथ कर्म करते हुए बुद्धियोग से आवरण हटाने के लिए विद्या द्वारा आत्मा का प्रसाद गुण प्रकट हो जाता है। जिससे धर्म-वैराग्य, ऐश्वर्य, ज्ञान आदि बुद्धि के भाव भी प्रसाद गुण वाले हो जाते हैं। तब आत्म शक्तियों के विकसित होते ही साधक कृष्ण या ईश्वर बन जाता है।
क्रमश:

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