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ऋषि ज्ञान का सूर्योदय

Gulab Kothari Article: नई युवा पीढ़ी को स्थानीय चिकित्सा पद्धतियों पर विश्वास नहीं होने का कारण है- समय के साथ शोध का अभाव। जब संपूर्ण जीवन शैली बदल गई, खान-पान बदल गए, जलवायु बदलने लगा, तब पुरातन परम्पराओं को भी नए वस्त्र पहनाने की आवश्यकता है… गुजरात के जामनगर में विश्व स्वास्थ्य संगठन के वैश्विक परम्परागत औषधि केन्द्र की नींव रखने से आयुर्वेद की पुनर्प्रतिष्ठा किस प्रकार हो सकेगी और यह क्यों जरुरी है, इसी पर केंद्रित है ‘पत्रिका’ समूह के प्रधान संपादक गुलाब कोठारी का यह विचारोत्तेजक अग्रलेख-

Apr 22, 2022 / 10:21 pm

Gulab Kothari

Gulab Kothari editor-in-chief of ‘Patrika’ group

Sunrise of Sage Wisdom: प्रकृति में देवता 33 और असुर 99 होते हैं। असुर बलवान भी होते हैं। फिर भी अंत में जीत सत्य की होती है। जो देश सदियों ज्ञान में अग्रणी रहा, आज पराधीनता को जी रहा है। लोकतंत्र में संविधान आज भी हमारा नहीं, देश का नाम हमारा नहीं, भाषा पर अधिकार हमारा नहीं। भाषा विदेशी, ज्ञान भी विदेशी-उधार का। और हम लट्टू। राजकाज, न्यायपालिका, उच्च शिक्षा, स्वास्थ्य सब कुछ भारतवासियों की पहुंच के बाहर हैं। केवल भाषा ही नहीं, ये सारी सेवाएं डालर-यूरो (विदेशी मुद्रा के अनुपात) में ही उपलब्ध है। हमारे पास विकल्प कहां है? अस्पताल जाओ चाहे न्यायालय, घर बेचने की तैयारी तो साधारण नागरिक को करनी ही पड़ेगी। सारे सिस्टम आज तो ग्रामीणों के लिए अंग्रेजी/ विदेशी ही हैं। अंग्रेज नहीं जाते तब भी यही रहते। लंंदन जाओ तो वहां भी यही है।
कोविड काल में सब सिद्ध हो गया। संपूर्ण देश की कमाई सिमट कर चिकित्सा में समा गई। क्यों? क्योंकि हम अपने पांव पर नहीं, पराई बैसाखियों पर खड़े हैं। ऊपर से भ्रष्टाचार! इसी विषपान के सहारे -विज्ञान के मुखौटे में-आज हम अमृत महोत्सव तक पहुंच गए।

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी तथा समस्त देशवासी बधाई के पात्र हैं कि 19 अप्रेल को गुजरात के जामनगर में विश्व स्वास्थ्य संगठन के वैश्विक परम्परागत औषधि केन्द्र की नींव रख दी गई। हमारे ज्ञान की पुनर्प्रतिष्ठा का अमृत महोत्सव अब अपने स्वरूप में प्रकट होगा।

सभी देशों को इस बहाने अपने भीतर झांकने का अवसर भी मिल जाएगा। आज चिकित्सा क्षेत्र अन्य व्यवसायों और विधायिका की तरह ही व्यापारिक स्वरूप ले बैठा। संवेदना, मानवीय करूणा जैसे शब्द खोते जा रहे हैं। सबका ध्यान ‘खातों’ की ओर मुड़ गया। क्योंकि शिक्षा का खर्च व्यापारिक निवेश जैसा हो गया।


भारत में जीवन की परिभाषा ही भिन्न है। सूर्य जगत का आत्मा है। वहीं से जीव आयुष्य लेकर आता है। शरीर, माता-पिता द्वारा तैयार किया जाता है। आत्मा और सूक्ष्म शरीर के मध्य सूक्ष्म अथवा प्राण शरीर सेतु है। स्थूल शरीर भीतर के दोनों शरीरों का दर्पण मात्र है।

आधुनिक चिकित्सा शास्त्र इन लक्षणों के आधार पर चिकित्सा करता है। कई रोगों की चिकित्सा मरते दम तक चलती है। रोग जाते नहीं है। क्योंकि ये भीतर कारण शरीर में रहते हैं। कुछ पूर्व जन्मों से भी आते हैं।

बुद्धि सूर्य से आती है। मन चन्द्रमा से बनता है। चन्द्रमा से ही शुक्र में पितृप्राण आते हैं। चन्द्र-मास से ही स्त्री रजस्वला होती है। स्थूल शरीर पृथ्वी से बनता है। शरीर और पृथ्वी दोनों का निर्माण जल से होता है। जो हमारी चक्र व्यवस्था (शरीर में )है, वही एण्डोक्राइनग्लैण्डस् है।

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श्रद्धेय बाबू सा. कर्पूरचन्द्र कुलिश ने अपनी पुस्तक ‘सात सैंकड़ा’ में भी चन्द्रमा के महत्व को इस दोहे के माध्यम से बताया था।
‘औषधीनां पती: कहै चन्द्रमा ने बैद।
चन्दर ही सूं अन्न-मन, चन्दर पिण्ड सुबैद।।’

देखा जाए तो हमारी दृष्टि समग्रता आधारित है वहीं एलोपैथी का आधार खण्ड दृष्टि है। हमारी चिकित्सा नीति ने आयुर्वेद और आधुनिक चिकित्सा प्रणाली को आमने-सामने ही खड़ा नहीं किया, बल्कि आधुनिक चिकित्सा प्रणाली को एकपक्षीय राज्य-संरक्षण भी विज्ञान के नाम पर प्रदान किया।

डॉक्टर भगवान का चोला फैंक चुका है। वह नहीं मानता कि सबके भीतर एक ही आत्मा है। आध्यात्मिक चिंतन को तो स्थान ही नहीं है। गीता कहती है कि सबको कर्म-फलों को भोगने के लिए मानव शरीर मिलता है, जिनमें रोग भी शामिल हैं।


आत्मा हमारे शरीर में चन्द्रमा और अन्न के माध्यम से आता है। अन्न से शुक्र बनता है जिसमें पिछली सात पीढिय़ों के अंश रहते हैं, चारों वर्ण रहते हैं, सत्च, रज, तम रहते हैं, शरीर की आकृति-प्रकृति-अहंकृति रहती है, आयुष्य रहता है। स्त्री शरीर में शुक्र नहीं होने से पितृ प्राण और वर्ण नहीं रहते।

किन्हीं दो शरीरों का संगठन समान नहीं होता। हम भी प्राकृतिक पशु हैं। हमारा स्वास्थ्य भी प्रकृति पर, विशेषकर अन्न पर आधारित हैं। अन्न से मन बनता है। मन की इच्छाओं को पूरा करना ही जीवन की क्रियाओं का आधार है। अर्थात् हमारे स्वास्थ्य की परिकल्पना का आधार अधिदैव, अधिभूत और आध्यात्म की समग्रता है।

केवल शरीर नहीं है। पश्चिम के दर्शन में अधिदैव का स्थान ही नहीं है। तब प्राणों की भूमिका कहां दिखाई देगी?
परम्परागत औषधि का यह नया केन्द्र वास्तव में एक नए युग की शुरुआत होगी। अपने उद्घाटन भाषण में प्रधानमंत्री ने केन्द्र के जिन चार लक्ष्यों की बात कही है मूल में आज की प्राथमिक आवश्यकता यही है।

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प्रत्येक देश में परम्परागत चिकित्सा का अपना निजी स्वरूप है, निजी प्राकृतिक वातावरण और जीवन शैली है। केन्द्र में इन विविधताओं के चिकित्सा प्रभावों का अध्ययन हो सकेेगा। आधुनिक प्रणाली इस प्रकार के भेदों को विशेष महत्व नहीं देती। मापदण्ड की असमानता भी एक बड़ा दोष है।

नई युवा पीढ़ी को स्थानीय चिकित्सा पद्धतियों पर विश्वास नहीं होने का कारण है- समय के साथ शोध का अभाव। जब संपूर्ण जीवन शैली बदल गई, खान-पान बदल गए, जलवायु बदलने लगा, तब पुरातन परम्पराओं को भी नए वस्त्र पहनाने की आवश्यकता है। हमारी सरकारों ने इस दृष्टि से आयुर्वेद के साथ सौतेलेपन का व्यवहार किया। अंतरराष्ट्रीय स्तर कभी स्थापित करने का प्रयास ही नहीं किया।

सच्चाई तो यह है कि किसी समय आयुर्वेद क्लिनिकों में दवाइयों का वार्षिक बजट डॉक्टर की एक माह की तनख्वाह के बराबर होता था। इस केन्द्र के खुलने पर अंतरराष्ट्रीय स्तर की औषधियों के टेस्ट भी शुरू होंगे। तब हमारे ज्ञान का निर्यात होने लगेगा। नया जीवनदान मिलेगा ऋषियों के ज्ञान को।



इस केन्द्र का बड़ा लाभ होगा- हर देश की परम्परा का सम्मान। आज आधुनिक पद्धति की आक्रामकता से सभी देश त्रस्त हैं। सबको अभिव्यक्ति के लिए एक प्लेटफार्म मिलेगा। प्रकृति-शरीर-रोग, औषधि क्षेत्र के अनेक समान स्वरूप भी प्रकट होंगे। मानवता फिर से नए स्वरूप में प्रवाहित होगी।

सूर्य से प्राप्त ज्योति -आयु- गौ का भारतीय ज्ञान विश्वपटल पर पुन: उभरेगा। संगोष्ठियों, वार्षिक चिंतन बैठकों में कार्यों की चर्चा, नई कार्ययोजनाएं भी स्वरूप ग्रहण करेंगी। प्रधानमंत्री का वार्षिक चिकित्सा उत्सव (परम्परागत चिकित्सा ) का सुझाव प्रणम्य है। यह प्रयोग प्रकृति की स्तुति से कम नहीं होगा।

आज के अहंकार के स्थान पर ईश्वर के प्रति कृतज्ञता का वातावरण बनेगा। चिकित्सक का मानवीय दर्जा ऊपर उठ जाएगा। हर जीवन मूल्यवान होगा। आज पैसे की चकाचौंध में मानव ही खो गया। कोरोना समझा भी गया।

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सबसे बड़ा लाभ होगा शोध कार्यों की स्वतंत्र व्यवस्था से। इसका अर्थ है-सरकार आयुर्वेद को भी चिकित्सा विज्ञान में समान महत्व प्रदान करेगी। आज तो आयुर्वेद के छात्रों को भी एलोपैथी पढ़ाई जाती है। शरीर और प्रकृति का भारतीय ज्ञान एमबीबीएस में भी पढ़ाया जाना चाहिए। मूलभूत कमियां दूर हो सकेंगी। क्या दूरदृष्टि है इस केन्द्र की स्थापना के पीछे।

विश्व समाज की अवधारणा- सर्वे सन्तु निरामया का व्यावहारिक स्वरूप। बिना दृढ़ इच्छा शक्ति के भारत के ज्ञान का ऐसा पुनरुद्धार का मार्ग प्रशस्त ही नहीं होता। ‘ट्रीटमेंट प्रोटोकॉल’ का लक्ष्य सर्वोपरि और सर्वश्रेष्ठ है। इसमें चिकित्सा कार्यों में दोनों आधुनिक और परम्परागत पद्धतियों का समावेश रहेगा।

नई दृष्टि, नया सवेरा, मैत्रीभाव के साथ वसुधैव कुटुम्बकम् का नया विश्वास पैदा होगा। नई पीढ़ी को घर पर पुन: विश्वास होगा। उसी ज्ञान पर पराए ज्ञान को अतिथि का सम्मान प्राप्त होगा। आस्था का ऐश्वर्य ही स्वस्थ जीवन का पर्याय होगा। काया का निरोगी होना संभव हो जाएगा-वही पहला सुख है।
gulabkothari@epatrika.com

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