कांग्रेस की चर्चा हो रही है, व्यापक फेरबदल प्रस्तावित है सुना है- अध्यक्ष का चुनाव भी २० अगस्त तक होना है। क्या यह लाचारी का ‘मोड’ नहीं है? क्या चुनावों में हार कहीं भी कांग्रेस की हुई ? कहीं कांग्रेस के नेता चुनाव प्रचार में नहीं थे। चुनाव, गांधी परिवार लड़ रहा था।
पिछले चुनावों में भी राहुल गांधी एक मात्र प्रधान प्रचारक थे। वे ही कांग्रेस थे। गांधी परिवार ही कांग्रेस का पर्याय बना हुआ है। हार-जीत परिवार की ही है, कांग्रेस की नहीं। हार जीत का आकलन भौतिक परिस्थिति के गुणा-भाग से नहीं होगा। देश के लिए कुछ करने के संकल्प से होगा।
देशभर में कितने होंगे। सत्ता में अपराधी को बचाया तो जा सकता है, जनता के मानस पटल से मिटाया नहीं जा सकता। आकलन होना चाहिए कि किन विशिष्टताओं के कारण कांग्रेसी नेता प्रभावी थे, सम्मानित होते थे। आज क्या हो गया? व्यक्ति महत्वपूर्ण है, नीयत महत्वपूर्ण है, सपने महत्वपूर्ण है। आज की कांग्रेस में बस शून्य है। अन्य दल देश में विपक्ष का दर्जा प्राप्त करने की स्थिति में नहीं हैं।
अर्थात- कांग्रेस के साथ-साथ लोकतंत्र भी उठ जाएगा। सोनिया गांधी बचा सकती है। कपिल सिब्बल का यह कहना वाजिब है, कि कांग्रेस का अध्यक्ष पूर्णकालिक भी हो और गांधी परिवार के बाहर का भी हो। सच तो यह है कि यह निर्णय गांधी परिवार के लिए सहज नहीं होगा। फिर भी २० अगस्त तक तो प्रतीक्षा करनी चाहिए।
क्या किसी कांग्रेसी मुख्यमंत्री को इंदिरा गांधी का नारा- एक ही जादू, कड़ी मेहनत, पक्का इरादा और दूर दृष्टि याद है? अंहकार को सबने ग्रहण कर लिया। लगभग सभी नेता जनता से दूर होते चले गए। अवसर मिला तो राज कर लिया, वरना घर बैठ गए।
जनता ने ऐसे लोगों को अवसर देना बंद कर दिया। कांग्रेस आज ठहरा हुआ पानी है। नए लोगों की समय के साथ भर्ती नहीं हुई। प्रशिक्षण तो बंद ही है। आज जो मंत्री बनते हैं, वे देश-विदेश को समझने की क्षमता ही नहीं रखते। योग्यता आधार नहीं रहा। कुर्सी पर बैठते ही सत्ता अधिकारियों के हाथों में चली जाती है। विधायिका राज-काज से दूर या अनभिज्ञ रहती है।
पूतना का दूध
अंग्रेजी भाषा एक बड़ी बाधा है, जिसे अधिकांश विधायक आज भी पार नहीं कर पाते। सत्ता सुख भोगना पहले दिन से शुरू हो जाता है। त्याग शब्द खो गया। शाम को गल्ला गिनने लग गए। यह हमारा दुर्भाग्य है कि इन पर कोई भारतीय कानून लागू रखने की बाध्यता नहीं है। इनको सौ गुनाह माफ हैं। मानो से स्वर्ग से उतरे हैं। इस देश पर राज करने आते हैं।जिस प्रदेश में कांग्रेस चुनाव हारी, वहां अध्यक्ष बदल दिए। पिछले दिनों ही पंजाब, तेलंगाना, उत्तराखण्ड, गुजरात राज्यों के अध्यक्ष बदले गए। अब हरियाणा-यूपी की चर्चा चल रही है। अध्यक्ष की नियुक्ति और बदलाव का आधार क्या है-आलाकमान की मर्जी? अथवा प्रदेश के प्रजातांत्रिक ढांचे की समझ और उस पर कई दौर के अनुभव?
राजस्थान में ही सचिन को हटाया और डोटासरा को लगाया। आधार और तुलनात्मक दक्षता? पिछले दिनों डोटासरा की चर्चा कहां-कहां हुई, क्या इस पर कार्य समिति में चर्चा हुई? कांग्रेस सत्ता में है, निजी सम्पत्ति नहीं है।
मध्यप्रदेश में कांग्रेस अपेक्षा के विपरीत क्यों जीती, फिर कैसे उसके विधायक बिक गए- क्या कारण सामने आए, जनता अनभिज्ञ है।
दो-तीन करोड़ की डिजिटल सदस्यता का इस देश में कोई अर्थ नहीं है। न दूसरों (विपक्षी दलों) के सहयोग की बैसाखियां काम आने वाली है। प्रशान्त किशोर का चार सौ सीट का सपना परी-कथा ही माना जाएगा। उन्होंने कहा था क्या कि उत्तर प्रदेश में कांग्रेस और बसपा बाहर हो जाएगी।
क्या किसी ने हार के कारणों की समीक्षा की? समीक्षा किसी प्रदेश में हार-जीत की नहीं करनी है। कांग्रेस के गर्त में जाने की करनी चाहिए। कुछ कारण तो रह प्रदेश में समान होते हैं। वे पार्टी की संस्कृति से जुड़े हैं। सबसे पहले उनका आकलन होना चाहिए। संस्थागत नीतियों और समय के साथ आए क्रियान्वयन के बदलाव पर चर्चा होनी चाहिए।
मूंगफली सरकार की, जनता को छिलके!
इंदिरा गांधी के काल को आधार मानकर आगे बढऩा पड़ेगा। कांग्रेस में आमल-चूल परिवर्तन के दौर की शुरूआत हुई। इंदिरा कांग्रेस (आई) का जन्म हुआ था। कांग्रेस (ओ) से अलग धड़ा बना था। इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले को ठुकराया था। आपातकाल लगाया था। कांग्रेस के किसी नेता को ऊपर उठने ही नहीं दिया था।उनकी अचानक हत्या के बाद राष्ट्रपति ज्ञानी जैलसिंह ने राजीव गांधी को सत्ता सौंपी। तब क्या खोया, क्या पाया, कहां निष्पक्ष आकलन हुआ। अल्पसंख्यक वर्ग, आरक्षित वर्ग, जातियों का बढ़ता प्रभाव और पार्टी की घटती विश्वसनीयता पर किसने चर्चा की।
उसी की प्रतिक्रिया में आज हिन्दुत्व का नारा बुलन्द हुआ है। पहले तो कभी नहीं था। समीक्षा या चिंतन शिविर की घोषणा तो करना आसान है, किन्तु राष्ट्रीय स्तर पर हुए नीतिगत अपराधों की स्वीकृति कर पाना, जनता से क्षमा चाहने का भाव कांग्रेस की प्रकृति में नहीं है।
पिछली बार कांग्रेस विपक्ष में थी। विधायक घरों से बाहर भी दिखाई नहीं देते थे। समाचारों से कांग्रेस गायब थी। हम एक-एक विधायक को फोन करते थे कि कुछ तो करो। समाचार एक पक्षीय होते जा रहे हैं। कांग्रेस अच्छा विपक्षी दल नहीं बना। नहीं तो इतने अनुभव हो जाते कि सत्ता में रहकर हारते ही नहीं।
लोकतंत्र या ‘तंत्रलोक’
नए अध्यक्ष को भी व्यापक जनमत से चुन सकें, तो कांग्रेस नई पटरी पर पांव रखेगी। कांग्रेस केा बचाना है तो, चाहे-न-चाहे, गांधी परिवार को मु_ी खोलनी पड़ेगी। देश भर में पार्टी के पदों पर आसीन वंशवादी नेताओं को मुक्त करना पड़ेगा। देश के भावी विकास, भावी पीढ़ी और सामाजिक संतुलन पर नए सिरे से चिंतन करना पड़ेगा। कांग्रेस की पिछले वर्षों में विपक्षी दल के रूप में भी कोई भूमिका नहीं रही।अब छाया केबिनेट बना कर मुद्दों के अनुसार नीति-निर्माण और क्रियान्वयन में सकारात्मक भागीदारी निभानी होगी। सत्ता और विपक्ष मिलकर सरकार चलाते हैं- अभी जनता को यह विश्वास ही नहीं है। विपक्ष सत्ता से बाहर कहां है? आपने स्वीकार कर लिया, बस। या फिर आपकी कोई बड़ी कमजोरी होगी, जिस कारण सरकार के आगे मौन साध रखा है।
कुछ पाने के लिए कुछ खोना पड़ता है। कांग्रेस को, विशेष रूप से सोनिया गांधी को, भी कुछ खोने की तैयारी दिखानी चाहिए। कुछ बड़े राष्ट्रीय आंदोलन हाथ में लें, जनता को साथ लें, जेल जाना पड़े तो जाएं। देश के लिए नए सिरे से, प्रभावी तौर पर कुछ कर गुजरने की तैयारी दिखानी पड़ेगी। व्यक्ति गौण-कांग्रेस आगे-देश का उत्थान।
आज तो कांग्रेस अपने दोनों प्रदेशों को बचाने लायक स्थिति में नहीं है। बड़े पदों पर बैठे लोगों का मनोवैज्ञानिक टेस्ट भी करवाना गलत नहीं होगा। राष्ट्रीय स्तर कांग्रेस को कौन प्रतिष्ठित देखना चाहता है। आज न कांग्रेस, न विपक्ष, न ही सोनिया गांधी। जनता के दिलों में कोई नहीं। जगह तो वहीं बनानी पड़ेगी. gulabkothari@epatrika.com