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हिन्दू कौन?

हिन्दू शब्द की न तो कोई परिभाषा है, न ही व्याख्या। तो फिर हिन्दू कौन है? समझने के लिए पढ़ें धर्म, हिन्दू और वर्तमान भारतीय परिस्थितियों की व्याख्या करता ‘पत्रिका’ समूह के प्रधान संपादक गुलाब कोठारी का यह विचारोत्तेजक अग्रलेख –

नई दिल्लीJan 03, 2022 / 10:07 am

Gulab Kothari

Gulab Kothari article

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भाषा भूगोल पर आधारित होती है। संवाद का माध्यम होती है। वाणी का उच्चारण भी भूगोल पर ही आधारित होता है। कहीं च को स बोला जाता है। वहां चश्मा तो सश्मा हो जाता है और चम्मच का सम्मस। न चश्मा ही बदलता है, न ही चम्मच। कहीं स को ह बोला जाता है। वहां साथ का हाथ हो जाता है। कहीं ह का अ होता है तो हाथ का आत हो जाता है। प्रकृति के इसी स्वरूप के चलते भारत देश ‘हिन्दुस्तान’ बन गया।

सिंधु नदी के क्षेत्र को ही सिंधु घाटी सभ्यता कहा है। वहां के रहने वाले सिंधी कहलाए। भारत में स का ह बनकर ये हिन्दी-हिन्दू कहलाने लगे। इसी शब्द से आगे यह क्षेत्र हिन्दुस्तान कहलाया। कालान्तर में पूरा देश हिन्दुस्तान (मुस्लिम सानिध्य से) कहलाने लग गया। मूल में ‘हिन्दू’ कोई शब्द ही नहीं है। उच्चारण भेद से प्रचलन में आता गया। जब से मुस्लिम शब्द सम्प्रदाय रूप में उभरकर आया, हिन्दू शब्द इसके विरोध में सम्प्रदाय का वाचक हो गया।

हिन्दू शब्द की न तो कोई परिभाषा है, न ही व्याख्या। प्रत्येक सम्प्रदाय कुछ नियमों-आचार संहिता के आधार पर ही खड़ा होता है। हिन्दू किसी सम्प्रदाय का स्वरूप नहीं है, किन्तु मुस्लिम विरोधी व्यक्ति, जिसका कोई अन्य सम्प्रदाय (ईसाई-सिख-जैन आदि) न हो, वह हिन्दू हो गया। शब्द की उत्पत्ति, मूल में पाकिस्तानी मुसलमानों के खेमे से हुई जान पड़ती है, किन्तु कैसे भारतीयों ने अपने लिए स्वीकार लिया, आश्चर्य है।

आज की राजनीति के अखाड़े में हिन्दू शब्द एक शक्तिशाली हथियार बन गया। मुस्लिम विरोधी कितने ही सम्प्रदाय इस शब्द में समाहित हो गए। कई शास्त्रों के नाम हिन्दू शब्द से जुड़ गए। यह बड़ी शर्म की बात है। यह इस बात का प्रमाण भी है कि इस शब्द का इस्तेमाल करने वाले अपने देश और संस्कृति के प्रति कितना ज्ञान रखते हैं! एक कहावत है कि बन्दर के हाथ में उस्तरा दे दो, वह खुद को ही लहूलुहान कर लेगा। यही हाल आज हिन्दुवादियों ने अपना कर लिया।

भारत के पुरातन ग्रन्थों को पढ़ें। वेद, पुराण, उपनिषद्, गीता आदि का अध्ययन करें। कहीं हिन्दू शब्द नहीं मिलेगा। क्यों? हमारा अन्तिम शास्त्र, गीता कहा जाता है, जिसका काल भी पांच हजार वर्ष पुराना है। तब कौनसा सम्प्रदाय अस्तित्व में था? न मुस्लिम, न ईसाई, न सिख-जैन आदि? इससे क्या यह स्पष्ट नहीं होता कि सम्प्रदाय शब्द भी बाद के आचार्यों की ही देन है? शास्त्रों की नहीं हो सकती। तब हिन्दू, हिन्दुत्व, हिन्दूवादी शब्दों का क्या अर्थ रह जाएगा? अंधेरे में तीर चलाना या धूल में लट्ठ चलाना!

सम्प्रदाय किसी गुरु या महापुरुष द्वारा प्रतिपादित सिद्धान्तों पर चलता है। समूह में कार्य रूप लेता है। धर्म समूह में नहीं हो सकता। प्रत्येक व्यक्ति, प्राणी या तत्त्व का निजी होता है। सम्प्रदाय मुख्यत: शरीर/समाज आधारित होता है, जबकि धर्म, आत्मा से सम्बन्ध रखता है। हमारी वर्ण व्यवस्था भी आत्मा का अंग है। क्षत्रिय का धर्म युद्ध करना, रक्षा करना है तो यह शरीर का नहीं आत्मा का धर्म है। धर्म धारण करता है। व्यक्ति धर्म को धारण कर लेता है। अग्नि का धर्म ताप है, जल का धर्म नीचे की ओर बहना भी है। यही प्रकृति, स्वभाव, नेचर, धर्म है।

आप ग्रामीण स्तर पर आज भी देखें-कौन हिन्दू शब्द का प्रयोग करते हैं। हमारे शास्त्रों ने, प्रकृति आधारित वर्ण व्यवस्था दी है। लोग आज भी अपने को ब्राह्मण-क्षत्रिय-वैश्य कहते हैं। शूद्र शब्द का राजनीतिकरण हो गया। कानून तक बन गए, किन्तु शब्द कहां लागू होता है और क्यों लागू होता है, शास्त्र (गीता सहित) क्या विवेचना करते हैं-कोई नहीं जानता। किन्तु शब्द रूढि़ बन चुका है-हथियार बन चुका है, यहां तक कि खून में भी बहने लगा है। क्या यह सामाजिक जीवन का बड़ा नासूर नहीं है? क्या इससे राष्ट्रीय चरित्र की नींव खोखली नहीं हो जाएगी? जब कोई भी दल, हिन्दू-हिन्दुत्ववादी जैसे शब्दों को, हिन्दू-मुस्लिम सम्प्रदायों को एक-दूसरे पर फैंके, तब क्या इसका प्रभाव राजनीति से बाहर जीने वालों पर होगा, अथवा बात हवा में बिखरकर समाप्त हो जाएगी? एक मुखौटा, जिसके नीचे कोई चेहरा ही नहीं, वह ‘हिन्दू’ है।

 

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आवश्यकता है- शास्त्रों के आकलन की, पुनर्लेखन की। कोई भी संस्कृत/वैदिक विश्वविद्यालय भी ऐसे गंभीर विषय पर चिन्तन प्रस्तुत नहीं करे और देश को साम्प्रदायिक मृग मरीचिका में भटकने दे, तो इनकी सार्थकता ही क्या है? क्या इनको शास्त्रीय विवेचन एवं धर्म के स्वरूप की आज के संदर्भ में व्याख्या प्रस्तुत नहीं करनी चाहिए? इस भ्रान्ति को तुरन्त दूर करना अत्यन्त आवश्यक है।

 

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इसके अभाव में जो स्थिति आज बन रही है, वह साम्प्रदायिक आपातकाल ही है। विस्फोटक होती जा रही है। सम्पूर्ण देश माटी से दूर होकर साम्प्रदायिक कट्टरता का शिकार होता जा रहा है। भ्रम को रोग मानकर चिकित्सा नहीं की जा सकती। इसका उपचार लुकमान हकीम भी नहीं कर सकता। पूरे देश को कुछ देर के लिए ऐसे चिन्तन को विराम देकर सत्य को स्वीकार करना होगा। यही देश की एकता और अखण्डता को सुरक्षित रखने का एकमात्र उपाय होगा।

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