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कोविड के बाद बेहतर समाज के पुनर्निर्माण की उम्मीद

यदि भारत में तथाकथित साधारण व्यक्ति को कुछ मार्गदर्शन मिल सके तो वह सच्चे अर्थों में आत्मनिर्भर बन सकता है।महामारी के मंथन में अमृत और विष दोनों निकलेंगे ।

Jun 22, 2021 / 09:44 am

विकास गुप्ता

कोविड के बाद बेहतर समाज के पुनर्निर्माण की उम्मीद

कोविड के बाद बेहतर समाज के पुनर्निर्माण की उम्मीद

त्रिलोचन शास्त्री, (प्रोफेसर, आइआइएमबी व संस्थापक अध्यक्ष, एडीआर)

महामारी के बारे में, मनुष्य जाति ने जो सहा, जो त्रासदियां झेलीं, उनके बारे में, अत्यधिक दबाव वाली चिकित्सा प्रणालियों से लेकर राजनीति के बारे में, सरकारी प्रयासों के बारे में, अर्थव्यवस्था और नौकरियों पर इसके प्रभाव आदि के बारे में भी बहुत कुछ लिखा जा चुका है। ऐसा संकट हमें यह भी बताता है कि हम कैसा समाज हैं। यह हमें बता सकता है कि महामारी खत्म होने के बाद हम क्या उम्मीद कर सकते हैं। समाज से हमारा आशय है- हम व्यक्तिश: क्या कर सकते हैं, परिवार-पड़ोसियों आदि के साथ कैसे संवाद कर सकते हैं।

सकारात्मक पहलू यह रहा कि कोरोना योद्धाओं, डॉक्टरों, पैरामेडिकल स्टाफ और छोटे व्यक्तिगत दान-दाताओं ने मिलकर बड़ी मेहनत की। पिछले वर्ष कई लोगों ने भोजन वितरित किया, अभी भी यह जारी है। चूंकि, ऑक्सीजन की कमी थी, ऐसे में कई नवाचार के जरिए दान एकत्र कर सिलेंडर्स को देश के विभिन्न हिस्सों में पहुंचाया गया। कुछ ने शवों का अंतिम संस्कार भी कराया। हमें उम्मीद बंधी है कि हम अंतत: अपने समाज का पुनर्निर्माण कर सकते हैं। हालांकि, ऐसे लोगों की संख्या कदाचित एक प्रतिशत या उससे भी कम है।

समाज के सुविधा सम्पन्न वर्ग की प्रतिक्रिया अलग रही है। वे सुरक्षापूर्ण शहरी समुदायों, निजी बंगलों अथवा फार्महाउसों में रहते हैं। उनका ध्यान अपने और परिवार की सुरक्षा पर ही केन्द्रित रहता है। महामारी में उनमें से कुछ ही ने अपने प्रियजनों को खोया। कुल मिलाकर उनकी वित्तीय सुरक्षा पर कोई आंच नहीं आई। ऑनलाइन सेवाओं को धन्यवाद, छुट्टियां मनाने और पर्यटन को छोड़कर सब उपलब्ध है। ज्यादातर बाइक सवार युवा लड़के तैयार भोजन, पिज्जा, विभिन्न उत्पाद और किराने का सामान कम्युनिटी के मुख्य द्वार पर छोड़ जाते हैं। वहां रहने वाले उसे बाद में घर ले जाते हैं। सवाल वास्तव में यह है – अगर सुविधासम्पन्न व्यक्ति को सुरक्षित रहने के लिए इतनी सावधानी बरतनी पड़ती है तो फिर उनका क्या जो ये सेवाएं मुहैया करा रहे हैं? क्या उनकी सुरक्षा और जीवन महत्त्वपूर्ण नहीं है? कुछ लोग शिकायत भी कर देते हैं कि उनकी सेवाएं मानकपूर्ण नहीं हैं। यह स्पष्टत: वर्ग विभाजन है।

ऐसे लोगों की विशाल आबादी है जो सुरक्षित समुदायों में नहीं रहते हैं, उनके पास सुरक्षित नौकरी नहीं है। एक छोटे मकान में कई लोग रहते हैं, सोशल डिस्टेंसिंग वहां संभव नहीं है। मेडिकल इमरजेंसी के लिए न तो उनके पास धन है और न ही अस्पताल में बेड के लिए सिफारिश। इसकी वजह से कई लोगों को जान गंवानी पड़ी है। हां, अमीर हों या गरीब, शहरी हों या ग्रामीण, एक सिरे से दूसरे सिरे तक मोबाइल फोन और सोशल मीडिया के उपयोग में भारी वृद्धि हुई है। लॉकडाउन के दौरान इसमें और इजाफा हुआ है।

1918 के स्पेनिश फ्लू में 1.8 करोड़ भारतीयों की मौत हुई थी। कोविड से मौतों की आधिकारिक संख्या आज चार लाख से भी कम है। 1918 की तुलना में चार सौ में एक से भी कम। तब हमारी आबादी आज की एक चौथाई से भी कम थी। आज तबाही बहुत कम है, पर आधुनिक संचारतंत्र, सोशल मीडिया के जरिए जागरूकता अधिक है, जिसने अधिक उम्मीदें जगाई हैं।

इस मंथन में अमृत और विष दोनों निकलेंगे। कुछ विशेषाधिकार चले जाएंगे या पुन: परिभाषित होंगे। बढ़ती जागरूकता का मतलब है – राजनीति को अज्ञात तरीकों से पुन: पारिभाषित किया जाएगा। सामान्य लोगों का नेताओं व सरकार से सवाल पूछना तो हम पहले से ही देख रहे हैं। भारत में धर्म हमेशा महत्त्वपूर्ण रहेगा, पर धार्मिक संस्थाओं व धर्मगुरुओं का वही सम्मान रहेगा, यह देखा जाना बाकी है। यदि भारत में तथाकथित साधारण व्यक्ति को कुछ मार्गदर्शन मिल सके तो वह सच्चे अर्थों में आत्मनिर्भर बन सकता है। इससे नए और बेहतर समाज का निर्माण होगा। यह नए लोकतंत्र की शुरुआत हो सकती है।

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