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ओपिनियन

किसानों की मांगें कैसे करेंगे पूरी?

कृषकों को लुभाने में कोई पार्टी पीछे नहीं, लेकिन रोडमैप भी किसी के पास नहीं
 

जयपुरNov 12, 2018 / 06:14 pm

dilip chaturvedi

indian farmers

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देविन्दर शर्मा

देश में जब-जब चुनाव आते हैं, देश के आर्थिक पटल पर किसान भी आ जाते हैं। पिछले तीस वर्षों से हम देखते आ रहे हैं कि किसी भी विचारधारा वाला दल हो, चुनावों के वक्त किसानों को लेकर सभी का रवैया एक जैसा होता है। कृषि प्रधान माने जाने वाले राजस्थान, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ के विधानसभा चुनाव में भी फिर वही स्थिति है। सभी दल किसानों को लुभाने में लग गए हैं।

2019 का आम चुनाव भी आने वाला है। इससे पहले, किसानों को लेकर दो ही बातें राजनीति के केन्द्र में हैं। देशभर में हो रहे विरोध प्रदर्शनों में भी यही मांगें उठाई जा रही हैं। पहली है किसानों की ऋण माफी, दूसरी मांग स्वामीनाथन आयोग के अनुसार फसल के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य के साथ 50 प्रतिशत लाभांश मुहैया कराने से संबंधित है। सारे राजनीतिक दल सभी बकाया कृषि ऋण माफ करने की बात तो कर रहे हैं, लेकिन वास्तविकता में डूबत ऋणों का एक हिस्सा ही माफ किया जा रहा है। ऐसी स्थिति के चलते पंजाब, महाराष्ट्र, उत्तरप्रदेश, कर्नाटक जैसे राज्यों में अधिकतर किसानों की हालत बिगड़ी हुई है।

अब हम समर्थन मूल्य की बात पर आएं तो आज देश में स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशें शब्दश: लागू करने की महती आवश्यकता है, लेकिन एक कड़वी सच्चाई यह भी है कि अगर इन सिफारिशों के अनुसार मूल्य बढ़ाया भी जाता है तो इससे किसानों के एक छोटे से तबके को ही फायदा मिल पाएगा। शांता कुमार समिति के अनुसार खरीद कीमतों का फायदा देश में सिर्फ 6 प्रतिशत किसानों को ही मिल पाता है। दूसरे शब्दों में कहें तो यदि स्वामीनाथन आयोग के अनुसार न्यूनतम समर्थन मूल्य व लाभांश का फॉर्मूला लागू भी होता है तो इसके लाभार्थियों में वही किसान शामिल होंगे, जो पहले से न्यूनतम खरीद कीमतों का फायदा उठा रहे हैं।

ऐसे में बड़ा सवाल यह है कि तब उन 94 प्रतिशत किसानों का क्या, जो संसाधनों के अभाव में खरीद प्रक्रिया से वंचित रह जाते हैं। मध्यप्रदेश में 2017 के रबी सीजन में 94 लाख किसान परिवार थे, लेकिन सिर्फ साढ़े दस लाख परिवार ही खरीद प्रक्रिया में अपनी उपज बेच सके। ऐसे में करीब 83 प्रतिशत परिवारों का क्या?

कुल जमा बात यह कि स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशें लागू करना बहुत जरूरी है, लेकिन कीमतें बढ़ाई भी जाएं तो तब तक इसका फायदा नहीं मिलेगा, जब तक मंडी तक आने वाले हर किसान की उपज खरीदी न जाए। राजस्थान, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ की सरकारें ऐसी खरीद करने में विफल रही हैं और वहां किसानों की नाराजगी वजह यही है। यहां तक कि नए प्रधानमंत्री अन्नदाता आय संरक्षण अभियान (पीएम आशा) में भी उपज के विपणन योग्य अधिशेष का सिर्फ 25 प्रतिशत ही खरीद करने का प्रावधान है। ऐसे में शेष 75 प्रतिशत उपज का क्या होगा?

अब समझते हैं उस आर्थिक ढांचे को, जिसमें किसानों के हित में बहुत कम स्थान बचता है। उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने जैसे ही किसानों की ऋण माफी की घोषणा की, वित्त मंत्री ने साफ कर दिया कि ऋण माफी के संसाधन प्रदेश सरकार को अपने बूते जुटाने होंगे। दूसरी ओर देखें तो केंद्र ने अप्रेल 2014 से 2018 के बीच उद्योगों को दिए गए 3.16 लाख करोड़ रुपए के डूबत (एनपीए) खाते के ऋण माफ कर दिए। वित्त मंत्री ने कभी किसी राज्य को यह बोझ उठाने को नहीं कहा, जबकि उद्योग और किसान एक ही बैंक से ऋण लेते हैं। किसान प्रतिनिधियों को अब सवाल उठाना चाहिए कि क्यों उद्योगों के डूबत ऋण राज्यों की जिम्मेदारी नहीं बन सकतेï, क्यों नहीं उद्योग ऋणों की भांति रिजर्व बैंक सभी राष्ट्रीयकृत बैंकों को कृषि ऋण माफ करने के निर्देश भी दे, और क्यों ये आर्थिक बोझ राज्यों पर डाला जाता है?

इस समस्या की जड़ में वित्तीय उत्तरदायित्व और बजट प्रबंधन (एफआरबीएम) अधिनियम, 2003 है, जिसके जरिए मौजूदा वार्षिक उधारी सीमा को सकल राज्य घरेलू उत्पाद (जीएसडीपी) के तीन प्रतिशत तक सीमित किया गया है। बजट प्रावधान देखें तो साफ हो जाता है कि कृषि के लिए बहुत कम राशि बच पाती है। इसे यों समझें कि छत्तीसगढ़ में संशोधित बजट अनुमान के अनुसार राज्य के कुल राजस्व का 93 प्रतिशत हिस्सा तनख्वाह, पेंशन और ब्याज भुगतान पर खर्च होता है। राजस्थान में यह आंकड़ा 116 प्रतिशत और मध्यप्रदेश में 87 प्रतिशत है। जब राजस्व का इतना बड़ा हिस्सा पहले ही वेतन और पेंशन में खर्च हो जाता है तो किसानों समेत शेष आबादी के लिए मुश्किल ही कोई संसाधन बचता हो। केंद्र का योगदान न हो तो अपने उन कर्मचारियों को खुश रखने की जिम्मेदारी राज्यों के सिर पर आ जाती है, जो कुल आबादी का सिर्फ एक प्रतिशत हैं।

सुधार की शुरुआत ‘एफआरबीएम अधिनियम, 2003’ में बदलाव और राज्य कृषक आय आयोग की स्थापना की मांग से होगी। इसके तहत हर किसान परिवार को 18 हजार रुपए मासिक आय अनिवार्य करनी होगी। इस प्रस्ताव के जरिए हर जिले में किसान परिवारों की न्यूनतम मासिक आय सुनिश्चित हो सकेगी।

किसानों को समझना होगा ‘गणित’

जब तक किसान आंदोलन इस पूरे ‘गणित’ को नहीं समझेंगे, राजनीतिक दल घोषणा पत्रों में किसानों को लुभाने के बड़े-बड़े वादे करते रहेंगे। जरूरत यह है कि किसान संगठन दलों से पूछें कि यदि उनकी सरकार बनती है तो खेती-किसानी की मांगों को पूरा करने के लिए संसाधन कैसे जुटाएंगे?

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