उनके भाषण से पता चलता है कि वह इस सच्चाई से वाकिफ हैं कि दोनों देशों के बीच तनाव का किसी को फायदा नहीं है और अपनी गरीबी और बदहाली से बाहर आने के लिए अच्छे संबंधों के साथ आगे बढऩा ही बेहतर विकल्प है। इमरान अपने भाषणों में जैसा प्रदर्शित कर रहे हैं, पाकिस्तान अपने व्यवहार में वाकई ऐसा करने में सफल होता है तो न सिर्फ दोनों देशों, बल्कि दक्षिण एशिया के भविष्य के लिए भी मील का पत्थर स्थापित किया जा सकता है। यह बर्लिन की दीवार गिराने जैसा उदाहरण भी बन सकता है। यदि ऐसा होता है तो करतारपुर गलियारे का निर्माण, ताउम्र मानवता व शांति का संदेश देने वाले गुरु नानक की एक ऐसी कृपा ही समझी जाएगी, जिसका इंतजार दोनों देशों की जनता ने करीब 68 साल किया है।
अगर इमरान खान का इरादा वाकई दोनों देशों में शांति स्थापना का है, तो उन्हें कम से कम ऐसे पवित्र मौके पर कश्मीर का पुराना पाकिस्तानी राग अलापने से बचना चाहिए था। उन्हें बताने की कोई जरूरत नहीं थी कि पाकिस्तान के लिए सिर्फ कश्मीर ही एकमात्र मसला है। पूरी दुनिया जानती है कि पाकिस्तान के लिए कश्मीर एकमात्र मसला है, जबकि भारत के लिए उससे बड़ा मसला आतंकवाद है। भारत जिस आतंकवाद से जूझ रहा है उसके कर्ता-धर्ता पाकिस्तान की जमीन पर न सिर्फ उग रहे हैं बल्कि, वहीं उनका पालन-पोषण भी किया जा रहा है। भारत ही नहीं, अंतरराष्ट्रीय आतंकी घटनाओं के तार भी पाकिस्तान से जुड़ते रहे हैं। पाकिस्तान की इसी कमजोरी का फायदा उठाकर अंतरराष्ट्रीय युद्ध बाजार को संचालित करने वाली शक्तियों ने अपना उल्लू सीधा किया है।
पाकिस्तान आज कर्ज के जिस महाजाल में उलझा हुआ है उसके पीछे की बड़ी वजह विकास और नवनिर्माण नहीं, बल्कि वह नफरत है जिसे वह भारत के प्रति दिखाता रहा है। इसीलिए इमरान के दोस्ती के पैगाम को भारत में शक की निगाह से ही देखा जाएगा, क्योंकि कश्मीर का मुद्दा उछालना और आतंकवाद का कोई जिक्र नहीं करना उनकी सबसे बड़ी कमजोरी को उजागर करने वाला है। ऐसी ही कमजोरी पाकिस्तान के सभी प्रधानमंत्रियों ने दिखाई है। पूर्व अंतरराष्ट्रीय खिलाड़ी इमरान खान की नस-नस में क्रिकेट भरा है। हर मौके पर वह इसका प्रदर्शन करते हैं। ऐसा लगता है, उनके जीवन-दर्शन में क्रिकेट की बड़ी भूमिका है।
इसमें कोई शक नहीं कि खेल व्यक्तित्व निर्माण में मददगार होता है। इसमें भी कोई शक नहीं कि इमरान जीतने वाले खिलाड़ी रहे हैं। खेल के बाद राजनीतिक मैदान में भी उन्होंने जीतकर दिखाया है। ऐसा करने के लिए उन्होंने कट्टरपंथियों से हाथ मिलाने और सेना का आशीर्वाद लेने का रणनीतिक कौशल दिखाया है। पाक राजनीति में इन दोनों किरदारों की अहम भूमिका है और दोनों की ही मजबूती भारत के खिलाफ नफरत की राजनीति पर टिकी है। बदली परिस्थितियों में अमरीका का स्थान अब चीन ने ले लिया है। मौके-बेमौके चीन की चर्चा पाक प्रधानमंत्री की नई मजबूरी है। ऐसे में भारत को नसीहत देने से पहले अपने देश में मौजूद शांति के शत्रुओं से भिडऩे का जोखिम या इमरान उठा पाएंगे? इमरान जब तक ऐसा जोखिम नहीं लेंगे, भारत उन पर कभी भरोसा नहीं कर सकेगा। इमरान को यदि जीतने का सिलसिला आगे जारी रखना है तो यह जोखिम उठाना होगा। नहीं तो शांति की पिच पर बोल्ड होना महज कुछ समय की ही बात होगी।