मुझे पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज (पीयूसीएल) जैसे मंच पर 30 साल राजिंदर सच्चर जैसी शख्सियत के साथ काम करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। वह हमेशा खुद को पीयूसीएल का कार्यकर्ता कहा करते थे। आतंकवाद निरोधक कानून २००२ (पोटा) हो, जनप्रतिनिधि अधिनियम में राज्य सभा की सदस्यता को लेकर डोमिसाइल की जरूरत को खत्म करने संबंधी संशोधन का मामला हो या राजनीतिक सुधार के लिए आपराधिक पृष्ठभूमि और संपत्ति के खुलासे का मामला, उन्होंने कभी हार नहीं मानी और कभी निराश नहीं हुए। ९४ की उम्र में भी वह पूरी तरह सजग थे। कुछ समय से खानपान में कमी के चलते शारीरिक रूप से जरूर कमजोर हो गए थे, लेकिन चेहरे पर उदासी का दूर-दूर तक नामोनिशान न था।
देश के वर्तमान हालात को लेकर मुख्य रूप से उन्हें दो चिंताएं सताती रहती थीं। उनकी पहली चिंता थी न्यायपालिका के प्रति सम्मान और विश्वास में निरंतर आ रही कमी को लेकर। दूसरी चिंता समाज के विभिन्न वर्गों के बीच अलगाव और विघटन को लेकर थी। वह कहते थे कि देश की संस्कृति के साथ खिलवाड़ हो रहा है, अल्पसंख्यकों और समाज के दूसरे वर्गों के खिलाफ जिस तरह हिंसक घटनाएं हो रही हैं, यह सब ऐसे ही होता रहा तो क्या होगा इस देश का, इस तरह राष्ट्र की उन्नति संभव नहीं है।
सामाजिक जीवन में परिवर्तन को लेकर अक्सर लोग हार मान लेते हैं, निराश हो जाते हैं, लेकिन उन्होंने कभी हार नहीं मानी। बल्कि उनका जज्बा काबिले-तारीफ था और नौजवानों को प्रेरित करता था। याददाश्त भी उनकी इतनी पैनी थी, कि युवा भी अक्सर मात खा जाते थे। सच्चर समिति की रिपोर्ट लागू न होने को लेकर अक्सर लोग उनसे सवाल करते थे। ऐसे में हमेशा उनका जवाब यही होता था, ‘मैंने सच सबके सामने रख दिया है, मेरा काम रिपोर्ट देना था, उसका लागू होना या न होना अब जनता और सरकार के हाथ में है।’