सरल-विनम्र और निराभिमानी जीवन अभ्यासी बनें। जिसे अपना कुशल करना है और परम पद निर्वाण उपलब्ध करना है, उसे चाहिए कि वह सुयोग्य बने, सरल बने, सुभाषी बने, मृदु स्वभावी बने, निरभिमानी बने और संतुष्ट रहे। थोड़े में अपना पोषण करे, दीर्घसूत्री योजनाओं में न उलझा रहे, सादगी का जीवन अपनाए, शांत इन्द्रिय बने, दुस्साहसी न हो, दुराचरण न करे और मन में सदैव यही भाव रखे कि सभी प्राणी सुखी हों, निर्भय हों एवं आत्म-सुखलाभी हों। इसलिए अपमान न करें, क्रोध या वैमनस्य के वशीभूत होकर एक-दूसरे के दु:ख की कामना न करें। जिस प्रकार जान की भी बाजी लगाकर मां अपने पुत्र की रक्षा करती है, उसी प्रकार वह भी समस्त प्राणियों के प्रति अपने मन में अपरिमित मैत्रीभाव बढ़ाए।
जब तक निद्रा के आधीन नहीं हैं, तब तक खड़े, बैठे या लेटे हर अवस्था में इस अपरिमित मैत्री भावना की जागरूकता को कायम रखें। इसे ही भगवान ने ब्रह्म विहार कहा है। अज्ञानता, आत्म-विस्मृति और अविवेक ही समस्त दुखों की मूल जड़ है। सत्संग, स्वाध्याय और संत सन्निधि ही कल्याणकारी है।