यदि वे ऐसा करते तो मीडिया की सुर्खियों में तो आ जाते लेकिन
भारतीय सेना की छवि को बहुत ही नुकसान होता। हमारी सेना की परम्पराएं गौरवशाली रही हैं। उसने युद्धकाल में कौशल दिखाया है तो शांतिकाल में तलवारों की तरह अपनी आवाज भी म्यान में रखी है, मतलब बंद रखी है। पिछले ७० वर्षों में वीके सिंह, शंकर राय चौधरी, जेजे सिंह अथवा बीसी खण्डूरी या जसवंत सिंह जैसे बहुत कम उदाहरण मिलेंगे जहां सेवानिवृत्ति के बाद सैन्य अफसरों ने राजनीति की राह पकड़ी हो। कुछ अवसरों को छोड़ कर सेनाध्यक्ष की नियुक्ति में भी वरिष्ठता का सम्मान किया गया।
पहले मौके पर एस के सिन्हा की वरिष्ठता को लांघ कर ए एस वैद्य को व दूसरे मौके पर प्रवीण बख्शी और पी एम हारिज की वरिष्ठता को दरकिनार कर रावत को सेना की कमान सौंपी गई। अच्छी सेना और सैनिक भगवान को बाद में और अपने जनरल को पहले मानते हैं। भारतीय सेना में युद्धकाल से लेकर शांतिकाल तक सेना या सेनाध्यक्ष की ओर से कोई आवाज सुनाई नहीं पड़ती। वर्ष १९७१ में पाकिस्तानी सेना के ९५ हजार फौजियों का आत्मसमर्पण करा बंगलादेश के निर्माण का इतिहास रचने वाली भारतीय सेना के जनरल एस एच एफ मानेकशॉ तभी बोलते थे जब सैनिकों के बीच होते थे।
उनका भाषण कभी मीडिया की सुर्खी नहीं बना। सरकारों से लेकर सेनाध्यक्षों तक को उन्हीं परम्पराओं का अनुसरण करना चाहिये।राजनीति राजनेताओं को ही करने देनी चाहिए। सेना को विवादों से बचाने के लिए उसी सावधानी की जरुरत है। सर्जिकल स्ट्राइक या आतंकी को जीप से बांधकर मानव कवच बनाने जैसी घटनाओं का प्रचार किसी भी सूरत में हितकारी नहीं है।