भारतीय मुस्लिम समुदाय में घबराहट और असुरक्षा का भाव है। देश के अलग-अलग हिस्सों से मुझे ऐसी बातें सुनने को मिलती हैं।
– उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी, 10 अगस्त, 2017 (राज्यसभा टीवी को दिए एक साक्षात्कार में)
आपको आश्चर्य होगा कि ये दोनों वाक्य एक ही व्यक्ति-भारत के निवर्तमान उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी ने कहे हैं। मात्र सवा साल में परिस्थितियों में ऐसा क्या बदलाव आया कि उपराष्ट्रपति की ‘राय’ एकदम पलट गई! दोनों मौकों पर केन्द्र में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में भारतीय जनता पार्टी की सरकार थी। देश की अन्य परिस्थितियों में भी इतने कम समय में कोई बड़ा बदलाव नहीं आया।
उपराष्ट्रपति बनने से पूर्व अंसारी अपने वामपंथी झुकाव और बेबाकी के लिए जाने जाते रहे थे। अब, जबकि वे उपराष्ट्रपति के रूप में दो कार्यकालों के दस वर्ष भोग चुके हैं, अंसारी फिर बेबाकी के रास्ते पर चलने के लिए आतुर नजर आ रहे हैं। कार्यकाल के अन्तिम दिनों में लगातार तीन बार मुस्लिम समुदाय के असुरक्षा के भाव की बात उठाकर उन्होंने देश की राजनीति में हलचल मचा दी है। हाल ही राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी की विदाई जिस प्रकार के गरिमामय वातावरण में हुई, अंसारी की विदाई उसके उलट थी। उनका भाषण राजनीतिक ज्यादा लग रहा था। नतीजा यह हुआ कि देखते-देखते जवाबी हमले शुरू हो गए। संवैधानिक पदों की गरिमा तार-तार हो गई।
जब राजनीतिक दलों का, या किसी अन्य क्षेत्र का कोई व्यक्ति किसी संवैधानिक पद पर पहुंच जाता है तो माना जाता है कि अब किसी राजनीतिक दल, धर्म, जाति या क्षेत्र का नहीं, पूरे देश का नेतृत्व उसके हाथों में है। डॉ. जाकिर हुसैन हों या ज्ञानी जैल सिंह, भैरोंसिंह शेखावत हों या एपीजे
अब्दुल कलाम-शीर्ष पदों पर पहुंचे ज्यादातर नेताओं ने जनता की इस अपेक्षा पर खरा उतरकर दिखाया है।
पिछले कुछ वर्षों में संवैधानिक पदों से जुड़ी इस स्वस्थ परम्परा पर आंच आती महसूस हो रही है। राज्यपाल के पदों पर पहुंचे अनेक नेता तो पद पर रहते हुए अपने झुकाव को खुलकर प्रकट करने में नहीं चूके। पर उप राष्ट्रपति जैसे पद से भी यदि ऐसे झुकावों का खुलकर प्रदर्शन होने लगे तो हमें मानना चाहिए कि देश में लोकतंत्र शर्मनाक दौर में प्रवेश कर चुका है। लोकतंत्र के लिए स्वस्थ परम्परा तो यह होगी कि ऐसे पदों पर पहुंच चुके व्यक्ति सत्ता में बने रहने की अपनी महत्वाकांक्षाओं को त्याग कर राजनीति से पूर्ण संन्यास ही ले लें। अन्यथा लोकतांत्रिक संस्थाओं की आभा राजनीति की गंदे गुबार से धुंधली पड़ती जाएगी।