लैंगिक व जातीय या सामुदायिक व धार्मिक रूप से अशिष्ट शब्दावली का इस्तेमाल करने का मतलब है कि ऐसे लोग न तो कानून की इज्जत करते हैं और न ही मनुष्यता के वृहद आकाश में सांस लेते हैं। इस प्रवृत्ति को केवल गालियों के समाजशास्त्र के भरोसे नहीं समझा जा सकता। यह अहम समस्या तो है ही एक तरह से राजनीति को अलग तरफ मोडऩे का दुष्चक्र दिखता है ताकि राजनीति के मूलभूत सवालों से ध्यान बंट सके।
लगभग सभी राजनीतिक पार्टियों में ऐसे लोग हैं जो समय-असमय ‘कुभाषा’ का इस्तेमाल करते हैं । कभी वे इसे जायज ठहराते हैं तो ज्यादा ही दबाव पडऩे पर माफी भी मांग लेते हैं। दरअसल भाषा में जहर घोलकर ऐसे लोग या तो अपने वोट बैंक को सम्बोधित कर रहे होते हैं या खुद की छवि को चमकाकर राजनीतिक फायदा लेने की जुगत में होते हैं।
कभी कोई बदजुबानी करने वाले की जीभ काटकर लाने वाले को ईनाम देने की बात कहता है तो दूसरा उसका प्रतिवाद तक नहीं करता। शायद अब वह दौर नहीं रह गया जिसमें बुद्ध ने कुभाषा को भाषा से, क्रोध को शांति से और बैर को प्रेम से जीतने की बात कही थी। अब न तो धैर्य है, न शालीनता और न ही वैचारिक प्रखरता जिससे समुचित उत्तर दिया जा सके। विचार तो अब सामाजिक और राजनीतिक जीवन में गौण होते जा रहे हैं। यह सही है कि लोकतंत्र ने हमारे सोच व जीवन को बेहतर बनाया है, फिर भी अर्ध सामन्ती अवशेष व्यवहारों, आचारों व भाषिक संबोधनों से गए नहीं हैं। ये गाहे-बगाहे उभर आते हैं।
एक विचारधारा का व्यक्ति यदि दूसरी विचारधारा के लिए सहनशीलता नहीं रखता तो यह भी शोचनीय प्रश्न है। राजनीति स्वयं में सिर्फ परिवर्तन नहीं, शासन का आधार भी हो गई है । यह होना चाहिए कि राजनीतिक दल अपने कार्यकर्ताओं को जो प्रशिक्षण दें उनमें वैचारिक प्रखरता व संवाद में मर्यादा का खास ध्यान दिया जाए।