सजा से सबक देने की परिपाटी पूरी दुनिया में ही खत्म हो रही है। बच्चों के अधिकारों के लिए काम करने वाले संगठन और एनजीओ, स्कूलों में अच्छा वातावरण बनाने की वकालत करते हैं। अनुशासन के नाम पर शारीरिक व मानसिक सजा के विरुद्ध बाल अधिकार संरक्षण आयोग भी सख्ती का प्रावधान करते हैं। इसके बावजूद प्रदेश में बच्चों पर हिंसा-प्रताडऩा की निरंतर खबरें, घर में या बाहर, विचलित करती हैं।
हिंसा या प्रताडऩा से बच्चों का विकास नहीं हो सकता। अनुशासन का पाठ पढ़ाने के लिए बच्चों की पिटाई करने या उन्हें सजा देने को लेकर कई लोगों के अपने तर्क होते हैं। वहीं बाल संरक्षण के पक्षधर मानते हैं कि चांटा मारना या कान खींचकर सजा देना भी बच्चों पर नकारात्मक असर डालता है। यह असभ्य बर्ताव है। बच्चों के साथ संवाद बनाने से ही इसका रास्ता निकल सकता है। इसलिए पहली जरूरत बच्चों से दोस्ताना व्यवहार बनाने की है। कोरोना के कारण पहले ही ड्रॉपआउट की समस्या बढ़ गई है। ग्रामीण क्षेत्र में अभिभावकों और बच्चों का स्कूल की तरफ रुझान कम हुआ है।
बच्चों की परेशानियां समझ कर उनकी मदद करने की जरूरत है। उन्हें संभालना बहुत ही संवेदनशील मुद्दा है। संयम और सतर्कता के साथ समाधान खोजे जाने चाहिए। अवसाद और तनाव का खमियाजा बच्चे भुगत रहे हैं। यदि लगातार ऐसी घटनाएं सामने आ रही हैं तो समझना चाहिए कि हमारे परिवेश में कहीं न कहीं खामियां हैं। बच्चे अपनी मासूमियत और सहजता खो रहे हैं। ऐसे में समय-समय पर किसी न किसी माध्यम से अभिभावकों और शिक्षकों को सामाजिक प्रशिक्षण और मनोवैज्ञानिक उपचार देने की जरूरत है। (र.श.)