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सुधारो, रेलवे का हाल

स्वतंत्रता के समय भारत का रेलवे नेटवर्क चीन से
दोगुना था। पर आज चीन हमसे मीलों आगे दिखता

Apr 05, 2015 / 11:49 pm

शंकर शर्मा

स्वतंत्रता के समय भारत का रेलवे नेटवर्क चीन से दोगुना था। पर आज चीन हमसे मीलों आगे दिखता है। रेलवे के प्रसार के लिए जितने प्रयास की जरूरत थी, किसी सरकार ने वह किए नहीं।फिलहाल, मोदी सरकार रेलवे को सुधारने की दिशा में आगे बढ़ने को उत्सुक दिख रही है। बदलाव के लिए बनाई गई समिति ने रेलवे को मुख्य रूप से दो निकायों में बांटने का सुझाव दिया है। एक निकाय बुनियादी ढांचे की देखभाल के लिए होगा तो दूसरा निकाय संचालन संबंधी काम देखेगा। तीन सौ से अधिक पेज की रिपोर्ट में कई और सुझाव भी दिए गए हैं, इसी पर पढिए आज का स्पॉटलाइट:

विस्तार करना है तो यह रास्ता अपनाना होगा
जे. पी. बत्रा, रेलवे बोर्ड के पूर्व चेयरमैन
सभी विकसित देशों में रेलवे तंत्र निजी हाथों में है। वहीं भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश, श्री लंका, कुछ हद तक रूस जैसे देशों में रेलवे की तमाम गतिविधियां सरकार के अधीन है। भारत में अब रेलवे को सरकारी नियंत्रण से धीरे-धीरे बाहर निकालने के प्रयास शुरू हुए हैं। रेलवे के निजीकरण की बातें चलीं तो प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने कहा कि इसका निजीकरण नहीं करेंगे क्योंकि रेलवे यूनियन इसके खिलाफ हैं। दरअसल, सरकार शुरूआती दिनों में ही यह जोखिम नहीं उठाना चाहती है। वह रेलवे यूनियन को अपने खिलाफ नहीं करना चाहती हैं। पर देर-सबेर निजीकरण तो होना ही है।

सरकार अभी निजीकरण नहीं करना चाहती, मैं इस बात से सहमत हूं। यह रिपोर्ट भी रेलवे के मूलभूत (कोर) और गैर-मूलभूत (नॉन-कोर) गतिविधियों की बात करती हैं। गैर-मूलभूत गतिविधियों के संचालन के लिए निजीकरण की बात होती रही हैै और यह सरकार को करना चाहिए। रिपोर्ट भी कहती है कि ये गतिविधियां रेलवे के हाथों से बाहर करनी चाहिए। अब भले ही इनका कॉरपोरेटाइज कर दिया जाए या पीएसयू बना दिए जाएं या आगे जाकर निजीकरण कर दिया जाए। इससे पहले की रिपोर्ट में भी कहा जाता रहा है कि मेडिकल, हॉस्टल और स्कूल-कॉलेज चलाने की रेलवे को क्या जरूरत है? यह सब गतिविधियां रेलवे का हिस्सा नहीं होनी चाहिए। यह बोर्ड के कार्यो से भी भटकाव है।

उदाहरण के तौर पर विनिर्माण इकाइयां की ही बात करें तो ये रेलवे का हिस्सा नहीं होनी चाहिए। कोई भी निजी कम्पनी विनिर्माण कर सकती हैं। इनके रेलवे का हिस्सा होने के नाते इनको बजट भी दिया जाता है। प्रबंधन का ध्यान भी इन पर रहता है। इनके लिए संसाधन भी खपाए जाते हैं। यानी नॉन-कोर गतिविधियों के संचालन से कोर गतिविधियों का संचालन प्रभावित होता है। इसलिए प्रबंधन के लिहाज से मूलभूत गतिविधियों पर ही ध्यान केंद्रित किया जाना चाहिए। इससे पूंजीगत निवेश भी बचाया जा सकेगा। इस कमेटी ने बड़े मुद्दों को छुआ है।

रेलवे का ध्यान अपना धन बचाने पर तो रहना ही चाहिए पर कमाई कैसे बढ़े यह काम होना चाहिए। कमाई बढ़ाने के लिए इस वक्त रेलवे का तीव्र गति से विस्तार करने की जरूरत है। हैरत की बात है कि पिछले 60 वर्षो में रेलवे ऎसा नहीं कर पाई। रेलवे की इस वक्त पूंजीगत लागत बहुत ज्यादा है। इसे कमाई का जरिया बनाने के लिए नीतिगत रणनीति और पुनर्सरचना की सख्त जरूरत है। मौजूदा विनिर्माण इकाइयों को एक करके पीएसयू बनाने की बात भी कही गई है। पर विनिर्माण इकाइयों को पीएसयू बनाना भी अतार्किक ही होगा।

अभी हमें रेलवे का विस्तार करना है और केंद्र सरकार के पास इतना पैसा नहीं है। आजकल सरकार बड़े सरकारी बैंकों और पीएसयू के शेयर बेच रही है तो यही कार्य रेलवे की गतिविधियों में भी किया जा सकता है। पर यह बहुत आसान नहीं होने वाला है क्योंकि यूनियन को भरोसे में लेकर यह कार्य करना होगा। इसके लिए राजनीतिक इच्छा शक्ति की भी जरूरत पड़ेगी।

निजी क्षेत्र को अगर उसकी लागत का रिटर्न 3-5 साल में आने लगे तो वह रेलवे में आसानी से निवेश कर सकता है। विनिर्माण इकाइयों में निजी क्षेत्र को एक हिस्सा देकर कार्य करने देना चाहिए। रेलवे निजी कम्पनियों को अपनी ही जमीन का ही इस्तेमाल करने दे ताकि वह निजी कम्पनियों के साथ शेयर धारक भी बन जाए। इससे रेलवे को भी फायदा होगा। मुद्दा रेलवे में नियंत्रण का नहीं है। मुद्दा यह है कि रेलवे का खर्चा कैसे घटाया जाए? इसी प्रकार आरपीएफ की बात। हमारा रेलवे सिस्टम विश्व में बहुत बड़ा नहीं है। लेकिन सुरक्षा बल विश्व में बहुत बड़ा है। 65 हजार आरपीएफ और 35 हजार जीआरपी, एक लाख से ज्यादा अन्य सुरक्षाकर्मी हैं। अब रेलवे का काम कोई कानून व्यवस्था से निपटना नहीं है। इनमें कटौती की जानी चाहिए।


निजीकरण का सुझाव तो नहीं है
प्रोफेसर पार्थ मुखोपाध्याय, सेटर फॉर पॉलिसी रिसर्च व बिबेक देबरॉय कमेटी के सदस्य
कमेटी ने फिलहाल सिर्फ अंतरिम रिपोर्ट ही सौंपी है। समिति का कार्यकाल अगस्त 2015 में खत्म हो रहा है, तभी अंतिम रिपोर्ट सौंपी जाएगी। अभी तो यह रिपोर्ट जनता के सुझाव के लिए पेश की गई है। सभी से सुझाव आमंत्रित हैं। रिपोर्ट में निजीकरण का सुझाव नहीं दिया गया है। जिन सुझावों को लेकर निजीकरण की चर्चा मीडिया में है, वैसे ही उपायों पर रेलवे पहले ही आगे बढ़ चुकी है। “स्पेशल पर्पज व्हीकल” की बात की जा रही है, पर आईआरटीसी और अन्य कई निकायों के रूप में रेलवे में यह पहले ही किया जा रहा है।

यात्री गाडियों जैसे पैलेस ऑन व्हील्स आदि में भी निजी भागीदारी है तथा 2010 में विशेष स्कीम के तहत माल गाड़ी क्षेत्र में भी निजी क्षेत्र आ चुका है, जो कि में स्पेशल फ्रेट ट्रेन ऑपरेटर तथा ऑटोमोबाइल फ्रेट ट्रेन ऑपरेटर नाम से चल रहे हैं। फिर भी किसी को लगता है कि निजीकरण किया जा रहा है, तो सुझाव आमंत्रित हैं।

कमेटी में रेलवे की पृष्ठभूमि से सदस्य क्यों शामिल नहीं किए गए हैं, अगर किसी को ऎसा लगता है तो उसे यह सवाल उनसे पूछना चाहिए जिन्होंने यह कमेटी बनाई है। चूंकि अभी यह अंतरिम रिपोर्ट ही है, इसलिए अभी समिति के सदस्य इस विष्ाय में कुछ ज्यादा नहीं कह सकते। अभी तो हम जनता के सुझाव ही सुनना चाहते हैं।


असंगत और अव्यावहारिक है रिपोर्ट
सुरेश त्रिपाठी, संपादक, रेलवे समाचार
रेलवे बोर्ड के प्रस्तावित पुनर्गठन और प्रशासनिक सुधार पर सुझाव और सिफारिशें देने के लिए अर्थशास्त्री बिबेक देबरॉय की अध्यक्षता में गठित की गई समिति ने अपनी अंतरिम रिपोर्ट में कई असंगत और अव्यवहारिक सुझाव दिए हैं। समिति का गठन रेल मंत्रालय का पदभार संभालते ही रेलमंत्री सुरेश प्रभु ने किया था।

इन सुझावों के मान लिए जाने का मतलब भारतीय रेल को निजीकरण की तरफ ढकेल देना होगा। समिति का कहना है कि रेलवे की हालत सुधारने के लिए बड़े पैमाने पर निजीकरण किए जाने की आवश्यकता है। समिति ने सलाह दी है कि निजी क्षेत्र को यात्री ट्रेनें और मालगाडियां चलाने के साथ-साथ वैगन कोच और लोकोमोटिव निर्माण की इजाजत देने की भी जरूरत है। समिति ने रेलवे के कामों की कमर्शियल एकाउंटिंग करवाने की भी बात कही है।

इस उच्चाधिकार प्राप्त समिति ने देश के इस सबसे बड़े सरकारी परिवहन माध्यम को सभी कल्याणकारी और सामाजिक कार्यक्रमों से दूर रहने की भी सलाह दी है। समिति ने कहा है कि रेलवे को स्कूल और हॉस्पिटल चलाने तथा आरपीएफ जैसी भारी भरकम फोर्स को पालने जैसे कामों से खुद को दूर रखना चाहिए। समिति ने एक सरकारी स्पेशल पर्पज व्हीकल (एसपीवी), जिसका भविष्य में विनिवेश किया जा सकता है, बनाने का भी सुझाव दिया है। समिति का मानना है कि इस एसपीवी के पास रेलवे के बुनियादी ढांचा का स्वामित्व होना चाहिए। समिति ने रेलवे की सभी वर्तमान उत्पादन इकाईयों के स्थान पर भारतीय रेलवे विनिर्माण कंपनी बनाने का सुझाव दिया है। इसके साथ ही समिति ने रेलवे स्टेशनों के लिए भी अलग कंपनी बनाने की सलाह दी है।

जिसने रेलवे में फील्ड स्तर पर कभी काम नहीं किया, ऎसे एकाध सदस्य को इस समिति में शामिल करने का नतीजा आज सामने है। समिति के अध्यक्ष डॉ. देबरॉय सहित इसके किसी भी सदस्य का रेलवे से कभी कोई संबंध नहीं रहा है। ऎसे में उनसे रेलवे की असली समस्या की पहचान और उसके समाधान की अपेक्षा किया जाना ही सिरे से गलत है। रेलमंत्री सुरेश प्रभु ने आते ही कई प्रकार की समितियां गठित करके रेलवे को इन समितियों के कुचक्र में उलझाकर रख दिया है। रेलवे में सक्षम और योग्य अधिकारियों की कोई कमी नहीं है। इन सक्षम और योग्य रेल अधिकारियों की पहचान करके उनसे ही रेलवे का सम्पूर्ण उद्धार करवाने की जरूरत थी, और है।

यदि इस समिति के कम से कम आधे से ज्यादा सदस्यों ने रेलवे फ ील्ड में काम किया होता अथवा उनका रेलवे से कभी संबंध रहा होता तो वह ऎसी बचकानी सिफ ारिशें और बहुराष्ट्रीय कंपनियों के हित साधन करने वाली सलाहें कभी नहीं देते। यही सारी समस्या की जड़ है। इसके अलावा रेलवे में पिछले काफ ी समय से यह भी देखने को मिल रहा है कि एचओडी/पीएचओडी तक तो कोई भी रेल अधिकारी अपनी योग्यता, मेहनत और काबिलियत के बल पर पहुंच जाता है। इसके बाद राजनीतिक खींचतान शुरू हो जाती है।

ज्यादातर जीएम और बोर्ड मेंबर वही अधिकारी बन रहे हैं, जिन्होंने जिंदगी में कभी कोई निर्णय अपने दम पर नहीं लिया। क्योंकि यदि वह निर्णय लेंगे तो कहीं न कहीं गलती भी होगी, जो वह नहीं चाहते। उनका लक्ष्य जीएम और बोर्ड मेंबर बनने पर रहता है। आज स्थिति यह हो गई है कि अब जो भी अधिकारी सहायक वेतनमान में भर्ती होकर आ रहा है, वह भी ज्वाइनिंग के अगले दिन से ही जीएम और बोर्ड मेंबर बनने की प्लानिंग और गुणा-भाग करने लगता है।


रेलवे बोर्ड के अधिकारियों की निर्णय लेने की क्षमता का एक उदाहरण यह है कि वर्ष 2001-02 में यह बात महसूस की गई थी कि मानव मल-मूत्र से भरे पड़े रेलवे ट्रैक में काम करते समय गैंगमैनों के हाथ बहुत गंदे हो जाते हैं। उन्हें अपने उन्हीं गंदे हाथों से बिना पर्याप्त साफ.-सफ ाई के ही खाना खाना पड़ता है, जो कि उनके स्वास्थ्य को बहुत नुकसान पहुंचा रहा है। ऎसे में दक्षिण मध्य रेलवे में जोनल स्तर पर यह निर्णय लिया गया था कि गैंगमैनों को प्रति दिन एक-एक छोटा साबुन दिया जाएगा। इस निर्णय के अनुमोदन हेतु यह फ ाइल दक्षिण मध्य रेलवे द्वारा रेलवे बोर्ड को तभी भेज दी गई थी। मगर रेलवे बोर्ड को इस फ ाइल पर निर्णय लेने में करीब साढ़े तीन साल से ज्यादा का समय लगा था।

अब यदि रेलवे बोर्ड के अधिकारियों की निर्णय लेने की क्षमता का यह हाल है, तो रेलवे सिस्टम की बुरी हालत तो होगी ही। इसीलिए आज भारतीय रेल की समस्या गंभीर हो गई है। भारतीय रेल अगर आज गर्त में जा रही है और बाहरी लोग आकर इसकी बंदरबांट करने की योजना बना रहे हैं, तो इसका सारा श्रेय रेलवे बोर्ड के तमाम अकर्मण्य रेल अधिकारियों को ही जाता है, जिसका खामियाजा देश को और देश की लाचार जनता या सर्वसामान्य आदमी को भुगतना पड़ रहा है।

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