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न्यायपालिका की सीख

फैसले से नागरिक प्रशासन और पुलिस अधिकारी शायद समझ पाएं कि उन्हें आला राजनेताओं के इशारों पर नहीं, बल्कि कायदे और कानून से काम करना है।

जयपुरFeb 07, 2019 / 07:42 pm

dilip chaturvedi

indian Judiciary

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सारदा चिट फंड मामले में चल रही सीबीआइ जांच में पिछले दिनों केंद्रीय जांच एजेंसी, पश्चिम बंगाल सरकार तथा वहां की पुलिस के बीच बने दुर्भाग्यपूर्ण हालात को जिस प्रकार उच्चतम न्यायालय ने संभाला है, उससे इस न्यायिक संवैधानिक संस्था पर आम जन का भरोसा पुख्ता हुआ है। सुप्रीम कोर्ट ने जो फैसला दिया, उससे केंद्र व राज्य के बीच अचानक पैदा हुआ तनाव टल गया है। फैसले की खूबसूरती इसमें है कि किसी पक्ष को यह नहीं लगा कि वह हार गया। दोनों पक्षों ने माना कि उनकी जीत हुई यानी उनके साथ न्याय हुआ। भारतीय न्यायपालिका के फैसलों ने देश में कानून के राज को स्थापित करने में संवैधानिक भूमिका बखूबी निभाई है, पर संविधान प्रदत्त दो अन्य लोकतांत्रिक संस्थाओं द्ग विधायिका और कार्यपालिका द्ग के बारे में ऐसा नहीं कहा जा सकता क्योंकि उन्होंने अपनी मर्यादाएं खोई हैं। उनसे जिस लोकतांत्रिक व निष्पक्ष व्यवहार तथा विधिसम्मत व्यवस्था की अपेक्षा की जाती है, वे उन पर खरी नहीं उतरी हैं। इसके लिए राजनेता और प्रशासन के लोग अपनी जिम्मेवारियों से नहीं बच सकते।

सीबीआइ और पश्चिम बंगाल के पुलिस अधिकारी के बीच की खींचतान से जो कांड हुआ, वह संघीय लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए उचित नहीं था। ऐसी स्थिति नहीं बननी चाहिए थी। परन्तु जिस प्रकार की राजनीति का चलन अब हो चला है, उसमें राज में बैठे लोग प्रशासन और पुलिस को अपनी सनक से चलाना चाहते हैं। नागरिक प्रशासन और पुलिस अधिकारी भी उनके साथ हाथ मिला लेते हैं और कानून के राज की राह से च्युत हो जाते हैं। ऐसा होने से प्रशासन और पुलिस में कमांड और काबू नहीं रहता, जिससे अनुशासनहीनता पनपती है। इस सारे गड़बड़झाले में भ्रष्टाचार पनपता है जो लोकतंत्र को घुन की तरह खोखला कर देता है। राजनेता मतदाता को येन-केन-प्रकारेण रिझा कर अपने पक्ष में करने के लिए कानून की व्यवस्था और नैतिकता और मर्यादा की सीमाएं तभी लांघ सकता है, जब कार्यपालिका और पुलिस अपनी संवैधानिक सीमाएं तोड़ कर उन्हें खुश रखने को तैयार हो जाए। हमारे संविधान ने व्यवस्था की हुई है कि सभी अपनी-अपनी सीमाओं में रहें और एक-दूसरे के साथ संतुलन बनाए रखें। हम पाते हैं कि यह संतुलन बिगड़ रहा है। सीबीआइ और पश्चिम बंगाल पुलिस के बीच का विवाद इस संतुलन के बिगडऩे का प्रमाण है।

सर्वोच्च अदालत ने अपने फैसले से यही संतुलन बनाए रखने की अपनी जिम्मेवारी निभाई है। ऐसी न्यायपालिका पर हम गर्व कर सकते हैं। क्या हमारी विधायिका और कार्यपालिका भी इससे कुछ सबक लेगी? इसकी फिलहाल कोई आशा नजर नहीं आती। फिर भी भीषण राजनीतिक कोलाहल के बीच सर्वोच्च अदालत की संयत आवाज एक विश्वास दिलाती है कि देश में लोकतांत्रिक मूल्य बचे रहें और कानून सम्मत राज्य व्यवस्था कायम रहे, इस पर कम से कम एक संस्था तो नजर रखे हुए है। नागरिक प्रशासन और पुलिस अधिकारियों को इस फैसले से शायद यह समझ में आए कि उन्हें आला राजनेताओं के इशारों पर नहीं, बल्कि कायदे और कानून से काम करना है। यही अदालत के फैसले का मूल संदेश भी है।

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