सीबीआइ और पश्चिम बंगाल के पुलिस अधिकारी के बीच की खींचतान से जो कांड हुआ, वह संघीय लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए उचित नहीं था। ऐसी स्थिति नहीं बननी चाहिए थी। परन्तु जिस प्रकार की राजनीति का चलन अब हो चला है, उसमें राज में बैठे लोग प्रशासन और पुलिस को अपनी सनक से चलाना चाहते हैं। नागरिक प्रशासन और पुलिस अधिकारी भी उनके साथ हाथ मिला लेते हैं और कानून के राज की राह से च्युत हो जाते हैं। ऐसा होने से प्रशासन और पुलिस में कमांड और काबू नहीं रहता, जिससे अनुशासनहीनता पनपती है। इस सारे गड़बड़झाले में भ्रष्टाचार पनपता है जो लोकतंत्र को घुन की तरह खोखला कर देता है। राजनेता मतदाता को येन-केन-प्रकारेण रिझा कर अपने पक्ष में करने के लिए कानून की व्यवस्था और नैतिकता और मर्यादा की सीमाएं तभी लांघ सकता है, जब कार्यपालिका और पुलिस अपनी संवैधानिक सीमाएं तोड़ कर उन्हें खुश रखने को तैयार हो जाए। हमारे संविधान ने व्यवस्था की हुई है कि सभी अपनी-अपनी सीमाओं में रहें और एक-दूसरे के साथ संतुलन बनाए रखें। हम पाते हैं कि यह संतुलन बिगड़ रहा है। सीबीआइ और पश्चिम बंगाल पुलिस के बीच का विवाद इस संतुलन के बिगडऩे का प्रमाण है।
सर्वोच्च अदालत ने अपने फैसले से यही संतुलन बनाए रखने की अपनी जिम्मेवारी निभाई है। ऐसी न्यायपालिका पर हम गर्व कर सकते हैं। क्या हमारी विधायिका और कार्यपालिका भी इससे कुछ सबक लेगी? इसकी फिलहाल कोई आशा नजर नहीं आती। फिर भी भीषण राजनीतिक कोलाहल के बीच सर्वोच्च अदालत की संयत आवाज एक विश्वास दिलाती है कि देश में लोकतांत्रिक मूल्य बचे रहें और कानून सम्मत राज्य व्यवस्था कायम रहे, इस पर कम से कम एक संस्था तो नजर रखे हुए है। नागरिक प्रशासन और पुलिस अधिकारियों को इस फैसले से शायद यह समझ में आए कि उन्हें आला राजनेताओं के इशारों पर नहीं, बल्कि कायदे और कानून से काम करना है। यही अदालत के फैसले का मूल संदेश भी है।