यह समय भारतीय राजनीति में वामपंथ के लिए अस्तित्वीय संकट का है। जिस काल में राष्ट्र के सारे अर्जित प्रगतिशील मूल्य दाव पर दिखाई देते हैं, चारों ओर एक प्रकार की आदिम विवेकहीनता का बोलबाला दिखाई देता है, एक केंद्रीय सरकार संगठित रूप में प्राकृतिक विज्ञान के क्षेत्र पर भी अंधविश्वासों और कुसंस्कारों को थोपने की कोशिश कर रही है; वैज्ञानिकों को विमानों और प्लास्टिक सर्जरी की वैदिक विधियों पर शोध की तरह की बेतुकी हिदायतें दी जा रही हैं और डार्विन के विकासवाद के सिद्धांतों का अनपढ़ राजनीतिज्ञों के द्वारा खुलेआम मजाक उड़ाया जा रहा है। ऐसे समय में जब विज्ञान-मनस्कता के प्रसार की हमारी संवैधानिक निष्ठा को पूरी ताकत से उठाने वाली प्रगतिशील शक्तियों की हमारी राजनीति को सबसे अधिक जरूरत है, उस समय वामपंथ का अजीब किस्म की अपनी दुविधाओं के पाशों में फंस कर जड़ सा हो जाना बेहद चिंताजनक है।
ऐसे समय में वामपंथ की दो प्रमुख पार्टियों, सीपीआई (एम) (18-22 अप्रेल) और सीपीआई (25-29 अप्रेल) की क्रमश: हैदराबाद और कोल्लम में पार्टी कांग्रेस हो रही है। एक पूरी तरह से बदले हुए समय और राजनीति के नए परिदृश्य में इनके सांगठनिक ढांचों में ये पार्टी कांग्रेस ही बचा हुआ एक प्रमुख अवसर है, जब उन्हें कोरी गुटबाजी पर टिकी झूठी सैद्धांतिक बहसों के रोग से मुक्त हो कर संविधान और जनतंत्र के परिप्रेक्ष्य में आगे की राजनीति के पथ को नए सिरे से निर्धारित करना है। आजादी के सत्तर सालों में कम्युनिस्ट पार्टियों को एकाधिक राज्यों में सरकारें बनाने का मौका मिला। केरल, पश्चिम बंगाल, त्रिपुरा की सरकारों ने खास तौर पर भूमि सुधार और पंचायती राज के कामों के जरिए गांव के गरीबों के जीवन को जिस प्रकार शोषण के जुए से मुक्त किया, वह स्वयं में भारतीय राजनीति के इतिहास का स्वर्णिम अध्याय रहा है।
इसने केंद्र की नीतियों पर भी बड़ा असर डाला; पश्चिम बंगाल में रेकर्ड 34 सालों तक लगातार वाम मोर्चा सरकार का शासन रहा। लेकिन भूमि सुधार के कामों के अलावा शहरी और औद्योगिक क्षेत्र में वामपंथी सरकारें अपनी भूमिका को दूसरी पार्टियों से अलगाने में विफल रहीं। उल्टे, नौकरशाही पर उनकी निर्भरता ने मौके-बेमौके उन्हें जनता की ही आकांक्षाओं के विरुद्ध खड़ा कर दिया। शहरी विकास के लिए जमीन के अधिग्रहण के मामले में इनका नजरिया गरीब जनता के हित में होने के बजाय उनके खिलाफ चला गया। वामपंथ को इसका भारी राजनीतिक खमियाजा चुकाना पड़ा। वह सीधे तौर पर वामपंथ के जन-मुक्तिकारी चरित्र के साथ समझौता था।
यह वक्त सत्ता के विकेंद्रीकरण, पंचायती राज और भारत के संघीय ढांचे की रक्षा के सवाल पर वाम की उल्लेखनीय सफलता और शहरी तथा औद्योगिक विकास के क्षेत्र में उसकी विफलताओं को सही ढंग से निरूपित कर उनसे उचित शिक्षा लेने का है। प. बंगाल में नंदीग्राम और सिंगुर के बाद हाल में केरल के कन्नूर जिले के एक छोटे से गांव में बाईपास बनाने के लिए भू-अधिग्रहण के मामले में विवाद ने जो रूप लिया, वह भी कुछ ऐसा ही था। एलडीएफ सरकार और पार्टी गांव के अंदर से ही सडक़ ले जाने पर तुले थे, और किसान जमीन न देने पर आमादा थे। यह अनायास ही नंदीग्राम और सिंगुर की याद दिलाने वाली घटना थी।
सत्तारूढ़ होकर सिर्फ अर्थनीतिक ‘विकास’ के प्रति मोह सचमुच एक कथित क्रांतिकारी पार्टी के द्वारा जनता के अराजनीतिकरण का काम करने की तरह है। समाज में कोई भी परिवर्तन सर्व-मान्य चालू धारणाओं से चिपके रह कर संभव नही, बल्कि नया कुछ करने के लिए प्रचलित सोच से अपने को काटना पड़ता है। उसी से राज्य की अपनी जड़ता भी टूटती है। जब समाजवादी राज्य भी अनंत काल तक शासन करने के महज एक और तंत्र के रूप में काम करने लगे तो उसमें समाजवाद के मुक्तिदायी तत्व को क्षीण करने वाली विकृतियां होने लगती हैं। तत्वत:, सोवियत संघ और दुनिया में समाजवाद के पराभव का मूल कारण यही था, जब समाजवादी व्यवस्था ने एक दमनकारी नौकरशाही जड़ीभूत व्यवस्था का रूप ले लिया। इसीलिए देश और दुनिया की आज की बिल्कुल नई प्रकार की चुनौतियों के वक्त कम्युनिस्ट पार्टियों की कांग्रेस के ये आयोजन बहुत ही अर्थपूर्ण साबित हो सकते हैं।
जनता के जो भी हिस्से अपने जीवन की समस्याओं के लिए आंदोलनों में उतरे हुए हैं, वामपंथी ताकतों को उन आंदोलन में अपनी मौजूदगी और उनके साथ अपनी एकजुटता के लिए हमेशा तत्पर रहना चाहिए। यह समस्या आम लोगों की अपनी जातीय पहचान से जुड़ी हुई भी हो सकती है, वर्ण-वैषम्य से मुक्ति की भी हो सकती है, गांव के किसानों के उत्पाद के वाजिब मूल्य की मांग की हो सकती है या संगठित-असंगठित क्षेत्र के मजदूरों, कर्मचारियों और विभिन्न पेशेवरों की जीविका के सवालों से भी जुड़ी हो सकती है। क्रांतिकारी राजनीति का दायित्व शासन की समस्याओं का समाधान नहीं है, जनता की समस्याओं का समाधान है।