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स्थानीय नेतृत्व ही प्रभावी

भाजपा के साथ संघ की सेना है, और कांग्रेस सेवादल लडख़ड़ा गया है, कि कांग्रेस के पास उच्च और मध्यम दर्जे के कार्यकर्ता नहीं हैं।

May 18, 2018 / 09:50 am

Gulab Kothari

bs yeddyruppa

कर्नाटक विधानसभा चुनावों ने देश की राजनीति में एक भूचाल सा ला दिया। चुनाव प्रचार की भाषा ने विश्व को स्पष्ट संदेश दे दिया कि भारत अब ज्ञान के, संस्कृति और शिष्टाचार के क्षेत्र का विश्वगुरु नहीं बनेगा। राजनेताओं के विषय जनता से जुड़े हुए नहीं थे। वहां तो दलगत दलदल था। सत्ता और सत्ता, बस! कुर्सी के इस संघर्ष में तीनों स्तम्भों के चेहरे भी देश ने देख लिए। जिसकी लाठी, उसकी भैंस!
क्या कर्नाटक की जोड़-तोड़, खरीद-फरोख्त धमकियों और सोशल मीडिया की यह गूंज इसी वर्ष होने वाले हिन्दी भाषी राज्यों के चुनाव को भी प्रभावित करेगी या बीच में ही खो जाएगी? वह कौन से अनुभव हैं जो हमें अगले चुनाव में भी काम आएंगे? राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में तो वैसे भी भाजपा की स्थायी सरकारें हैं। यानी, घर की मुर्गी दाल बराबर? कर्नाटक चुनाव कह रहे हैं कि फिर भी कुछ रहस्य तो है जिसके प्रति जागरूक तो रहना ही पड़ेगा। यह कहना काफी नहीं होगा कि भाजपा के साथ संघ की सेना है, और कांग्रेस सेवादल लडख़ड़ा गया है, कि कांग्रेस के पास उच्च और मध्यम दर्जे के कार्यकर्ता नहीं हैं। कुछ तथ्य और भी हैं जिनको हम विस्मृत नहीं कर सकते। आइए, सिंहावलोकन करें!
कर्नाटक के सन 2008 के विधानसभा चुनावों में भाजपा को 33.८ प्रतिशत मतों के साथ 110 सीटें मिली थीं। कांग्रेस 34.७६ प्रतिशत के आंकड़ों के साथ 80 सीटें तथा एचडी देवेगौड़ा की पार्टी जद (ध) 18.९६ प्रतिशत के साथ तीसरे स्थान पर रही थी। येड्डियूरप्पा भाजपा में ही थे। सन 2013 के विधानसभा चुनाव में भाजपा ने अकेले चुनाव लड़ा और 20 प्रतिशत मतों के साथ 40 सीटें जीत पाई थी। येड्डियूरप्पा की पार्टी को ९.७९ प्रतिशत मतों के साथ 6 सीटें तथा श्रीरामुलू की पार्टी को 2.६९ प्रतिशत के साथ चार सीटें हासिल हुई। तीनों दलों ने मिलकर 50 सीटें प्राप्त की। पिछले चुनावों के मुकाबले भाजपा परिवार को ६० सीटें खोनी पड़ी।
इस बार 2018 के चुनाव भाजपा येड्डियूरप्पा एवं श्रीरामुलू तीनों एक होकर लड़े। वर्ष 2013 के विधानसभा चुनाव की हार के बाद 2014 के लोकसभा चुनाव से पहले ही भाजपा ने दोनों की पार्टियों को अपने में मिला लिया। तब फिर से भाजपा को 36.२ प्रतिशत मतों के साथ 104 सीटें मिल पाईं। हालांकि 2008 के मुकाबले अभी 6 सीटें टूटी। कांग्रेस को 38 प्रतिशत मतों के साथ ७८ सीटों पर संतोष करना पड़ा। जो गलती 2013 के चुनावों में भाजपा ने की थी, इस बार कांग्रेस ने दोहरा दी। आंकड़े गवाह हैं कांग्रेस और जद (ध) का गठबंधन भी यदि चुनाव पूर्व हो जाता तो सीटों की गणित बदल जाता। अभी जद (ध) तो मात्र 18.3 प्रतिशत के साथ 37 सीटों पर ही आकर ठहर गई है। लोकसभा चुनावों के आंकड़े भी कुछ ऐसी ही भाषा बोल रहे हैं। सन 2009 के चुनावों में भाजपा को 41.६३ प्रतिशत मतों के साथ 19 सीटें मिली थी।
येड्डियूरप्पा की पार्टी के अलग होने से विधानसभा की करारी हार (2013) ने भाजपा और येड्डियूरप्पा के दल को पुन: एक कर दिया और 2014 के लोकसभा चुनाव में फिर इस गठजोड़ ने 43 प्रतिशत मतों के साथ 17 सीटों पर पहुंच बना ली। यदि इसी प्रकार अगले लोकसभा चुनाव में कांग्रेस भी देवेगौड़ा की पार्टी से गठबन्धन करती है तो चुनाव धारदार हो जाएंगे।
निष्कर्ष क्या निकला? यही कि भाजपा हो अथवा कांग्रेस, क्षेत्रीय नेताओं की भूमिका के बिना कोई स्थानीय चुनाव नहीं जीत सकती। अगले चुनाव चूंकि भाजपा शासित राज्यों में हैं, अत: केंद्रीय नेतृत्व को तीनों मुख्यमंत्रियों श्रीमती वसुंधरा राजे , शिवराज सिंह चौहान एवं रमन सिंह को किसी भी दृष्टि से कम महत्वपूर्ण नहीं मानना चाहिए। सत्ता का अहंकार कैसे घातक होता है इसका प्रमाण तो कर्नाटक प्रत्यक्ष है। इनमें से किसी का भी चुनाव पूर्व हट जाना प्रदेश को खोने के बराबर ही होगा। बाहरी व्यक्ति कोढ़ में खाज का कार्य करेगा। कर्नाटक का यह सबक अगले चुनाव जीतने के लिए बहुत व्यापक और महत्वपूर्ण संकेत दे रहा है। इन संकेतों को नजरअंदाज करना भारी भूल साबित हो सकती है।

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