नब्बे करोड़ मतदाताओं वाले इस विशाल देश की राजनीतिक नब्ज समझने का दावा कोई भले ही कितना भी क्यों न कर ले, लेकिन देश राजनीतिक पंडितों की भविष्यवाणियों को धराशायी होते पहले भी देख चुका है। बड़ा सवाल ये कि मतदाता क्या सोच रहा है? राजनीतिक दलों के मुद्दे उसे पसंद आएंगे या फिर उसके अपने अलग मुद्दे हैं। ऐसे मुद्दे जिनकी तरफ शायद किसी का ध्यान नहीं जा रहा।
सत्ता की दौड़ में फिलहाल नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व वाला एनडीए और राहुल गांधी के नेतृत्व वाला यूपीए ही शामिल है। तीसरे मोर्चे का न वजूद नजर आ रहा है और न कोई ऐसा नेता, जिसे सभी दल स्वीकार करते हों। एनडीए या यों कहें कि नरेन्द्र मोदी को चुनौती देने के लिए विपक्ष को एक मंच पर लाने के लिए शुरू हुई महागठबंधन की कवायद रंग नहीं ला पाई। कांग्रेस न ममता बनर्जी को साथ ले पाई और न अखिलेश और मायावती को। बिहार में उसका राष्ट्रीय जनता दल के साथ गठबंधन है, लेकिन चुनाव की तारीखों का ऐलान होने तक सीटों का तालमेल अंतिम रूप नहीं ले पाया है।
महाराष्ट्र में एनसीपी और कर्नाटक में जनता दल (एस) के साथ भी तालमेल की बात अब तक नहीं बन पाई है। प. बंगाल में वाममोर्चा के साथ भी गठजोड़ की अटकलें मुकाम तक नहीं पहुंच पाई हैं। दूसरी तरफ शिवसेना के साथ मतभेद की तमाम खबरों के बावजूद महाराष्ट्र में भाजपा का उसके साथ सीटों का तालमेल हो चुका है। बिहार में जनता दल (यू), पंजाब में अकाली दल, झारखंड में आजसू के साथ भाजपा सीटों पर सहमति बना चुका है। तमिलनाडु में अन्नाद्रमुक के रूप में उसने नया साथी तलाश लिया है। तेलंगाना की टीआरएस, आंध्रप्रदेश की वाईएसआर कांग्रेस, उड़ीसा की बीजू जनता दल त्रिशंकु लोकसभा की सूरत में किधर का भी रुख कर सकते हैं। दूसरी ओर, आंध्र प्रदेश में चंद्रबाबू नायडू पिछली बार साथ थे, लेकिन आज अलग हो चुके हैं। जम्मू और कश्मीर में पीडीपी के साथ गठबंधन भी कुछ ही समय रह पाया। नामांकन पत्र दाखिल करने की आखिरी तारीख तक जोड़-तोड़ का ये सिलसिला हमेशा की तरह इस बार भी जारी रहने की उम्मीद है।
ये तो हुई बात गठबंधनों की। अब बात मुद्दों की। देश में कोई भी चुनाव हो, चंद मुद्दों के इर्द-गिर्द ही सिमटा रहता है। सन् 1977 का चुनाव ‘लोकतंत्र बचाओ’ के मुद्दे पर लड़ा गया तो 1980 का चुनाव स्थायित्व के नाम पर। 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद हुआ चुनाव सहानुभूति के मुद्दे पर लड़ा गया। पांच साल बाद बोफोर्स सौदे में दलाली का मुद्दा छाया रहा। 1989 में बनी वीपी सिंह सरकार डेढ़ साल में ही धराशायी हुई तो 1991 में स्थिरता का मुद्दा हावी हो गया। 1996 में ‘अबकी बारी-अटल बिहारी’ और 1999 में करगिल युद्ध मुद्दा था। 2004 में ‘शाइनिंग इंडिया’ बड़ा मुद्दा था, हालांकि ये औंधे मुंह गिरा और आठ साल बाद कांग्रेस सत्ता में लौट आई। फिर दस साल तक मनमोहन सिंह के नेतृत्व में कांग्रेस सत्ता में रही। 2014 का चुनाव आया तो ‘अब की बार-मोदी सरकार’ का नारा उभरा।
देश एक बार फिर चुनावी मोड में जा चुका है। पुलवामा में 14 फरवरी को हुए आतंकी हमले से पहले रफाल, नोटबंदी, जीएसटी और किसानों के मुद्दे छाए थे। भारतीय वायुसेना ने पाकिस्तान के आतंककारी ठिकानों पर हवाई हमले किए तो बाकी मुद्दे अब पीछे छूटते नजर आ रहे हैं। एक पखवाड़े में राष्ट्रवाद का मुद्दा प्रखरता के साथ सामने आया है, पर बड़ा सवाल यही कि ये मुद्दा कितना प्रभावी होगा?
पिछले चुनाव में 336 सीटों के भारी बहुमत के साथ सत्ता में आने वाले एनडीए को अपने गढ़ों को बचाने की जबर्दस्त चुनौती है। उत्तर प्रदेश की 80 में से 73 , महाराष्ट्र की 48 में से 42, बिहार की 40 में से 32, गुजरात, राजस्थान, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, हरियाणा, दिल्ली, उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश की 117 में से 111 सीटें जीतने वाला एनडीए क्या इन राज्यों में पहले जैसा प्रदर्शन दोहरा पाएगा? राजस्थान, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में भाजपा से सत्ता छीनने वाली कांग्रेस यहां कितनी सीटें जीत पाएगी? देश का मतदाता पूरी तरह से परिपक्व है। सोच-समझकर फैसला लेता है। उम्मीद है इस बार भी ऐसा ही होगा।