जिनके पास भारत की वैध नागरिकता है, उन अनिवासी भारतीयों के लिए एक विदेशी धरती से देश में आकर वोट डालना कितना महंगा होता है, लोकप्रिय सरकारों ने कभी भी इस पीड़ा को न समझने की कोशिश की और न ही प्रयास किए। आखिर उनका भी देश की प्रगति व विदेशी मुद्रा भंडार सुदृढ़ करने में योगदान है। करीब-करीब हर चुनाव से पहले फेक न्यूज सोशल मीडिया के जरिए सामने आती है कि इस बार अनिवासी भारतीयों को ऑनलाइन वोट यानी ई-वोटिंग का अधिकार मिल जाएगा, परंतु अभी तक सारे प्रयास ढाक के तीन पात ही साबित हुए हैं और आज भी वे भारत में आकर अपने निवास के निर्वाचन क्षेत्र में ही मतदान कर सकते हैं।
अगस्त 2018 में अनिवासी भारतीयों के लिए आसान मतदान के सपने को साकार करने के उद्देश्य से कानून एवं न्याय मंत्री रविशंकर प्रसाद ने एक विधेयक लोकसभा में पेश किया। विधेयक का उद्देश्य पूर्व में लागू कानून में ये संशोधन करना था कि विदेश में किसी भारतीय मिशन के तहत सशत्र सेना, पुलिस या अधिकारियों को प्रॉक्सी वोटिंग की जो सुविधा मिलती है, उसे अन्य अनिवासी भारतीयों के लिए भी लागू कर दिया जाए ताकि वे भी अपने किसी प्रतिनिधि के माध्यम से बिना भारत आए मतदान कर सकें। दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि लोकसभा में पास होने के बावजूद ये विधेयक वर्तमान सरकार के अंतिम सत्र में राज्यसभा में पास नहीं किया जा सका और कानून नहीं बन सका। इस तरह विदेश मंत्रालय के आंकड़ों के अनुसार करीब 3.10 करोड़ अनिवासी भारतीयों का सपना पूरा नहीं हो सका।
ये बहस का बिंदु हो सकता है कि वोट देने का अधिकार मौलिक अधिकार है अथवा संवैधानिक या कानूनी अधिकार? अगस्त 2017 में उच्चतम न्यायालय में इस बिंदु पर नौ न्यायाधीशों की पीठ बहस कर चुकी है कि वोट के अधिकार को किस श्रेणी में डाला जाए। आधार कार्ड एवं प्राइवेसी कानून की सुनवाई के दौरान नौ जजों की बेंच में शामिल जज जस्टिस जे. चेलमेश्वर ने कहा था कि वोट का अधिकार मौलिक अधिकार की श्रेणी में लाया जाना चाहिए, लेकिन अभी तक यह कानूनी अधिकार ही है। संविधान की धारा 326 भारत के वयस्क को वोट देने का अधिकार तो देती है, लेकिन मौलिक रूप में नहीं।
स्पष्ट है यदि सरकार चाहे तो बिना किसी जटिल संविधान संशोधन से गुजरे, इसे कानूनी अधिकार मानकर ऑनलाइन यानी ई-वोटिंग की कानूनी व्यवस्था कर सकती है। वर्ष 2010 में देश के तत्कालीन प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने भी आठवें प्रवासी भारतीय दिवस पर प्रवासी भारतीयों के लिए वोटिंग सिस्टम को सरल एवं सुगम बनाने की घोषणा की थी, परंतु हकीकत के धरातल पर कुछ भी नहीं हुआ।
ई-वोटिंग के अधिकार के लिए एक जनहित याचिका प्रवासी भारतीय संगठन की ओर से भी उच्चतम न्यायालय में दायर की गई थी, जिसमें डिप्लोमेटिक मिशन के माध्यम से रिक्त बैलट पेपर ईमेल के माध्यम से वोटर को भेजने और वोटर द्वारा भरकर वापस संबंधित निर्वाचन अधिकारी को भेजने की व्यवस्था कराने का आदेश सरकार को देने की अपील की गई थी।
संयुक्त राष्ट्र के आर्थिक एवं सामाजिक विभाग के अनुसार ऐसे भारतीयों की संख्या दुनिया में सबसे अधिक है, जिन्हें मतदान का अधिकार तो है, पर वे मतदान कर नहीं पाते। यदि वर्तमान भारतीय वोटिंग सिस्टम पर नजर डालें तो वे अनिवासी भारतीय ही, जो भारत के नागरिक हैं और किसी और देश की नागरिकता नहीं रखते हैं, अधिकृत वोटर हैं और वोट डालने का अधिकार रखते हैं। साथ ही वे अपना नाम मतदाता सूची में दर्ज करा सकते हैं। वर्तमान कानूनी स्थिति के मुताबिक उनको अगर वोट देना है तो जिस पोलिंग बूथ पर उनका नाम दर्ज है, केवल और केवल वहीं आकर वे वोट डाल सकते हैं, यानी वे वोट देने के लिए अधिकृत तो हैं, लेकिन किसी भी किस्म की रिमोट वोटिंग या प्रॉक्सी वोटिंग की व्यवस्था आज की तारीख में उनके लिए उपलब्ध नहीं है।
इस बारे में 21 फरवरी 2019 को राष्ट्रीय चुनाव आयोग स्पष्ट कर चुका है कि अनिवासी भारतीय फेक न्यूज पर ध्यान न दें और ध्यान में रखें कि भारत की सरकार एवं चुनाव आयोग ने अभी तक भारत के आगामी लोकसभा चुनाव में ऑनलाइन अर्थात ई-वोटिंग की कोई व्यवस्था उनके लिए नहीं की है। चुनाव आयोग की ओर से अनिवासी भारतीयों के लिए वोटर के रूप में रजिस्ट्रेशन की ऑनलाइन व्यवस्था ही अभी की गई है, जिसमें ऑनलाइन फॉर्म-6अ भरकर सिर्फ रजिस्ट्रेशन कराया जा सकता है।
इस मसले का दूसरा पहलू यह है कि किसी भी बड़े सिस्टम में सिर्फ तकनीक की उपलब्धता जरूरी नहीं होती, बल्कि प्रभावी रूप से लागू करने के लिए प्रोसेस निर्धारण भी जरूरी होता है। जाहिर है कि इसके लिए दृढ़ इच्छाशक्ति चाहिए। शायद फिर से कोई टीएन शेषन जैसे मजबूत इरादों वाला व्यक्ति सिस्टम में आए, जो राजनीतिक प्रतिबद्धताओं और पूर्वाग्रहों से ऊपर उठकर ऐसा महत्वपूर्ण निर्णय लेने की क्षमता रखता हो। अनिवासी भारतीयों के लिए मतदान की प्रक्रिया को सरल और सुगम बनाने में आज तकनीकी नहीं, लेकिन राजनीतिक प्रतिरोध जरूर दिखाई देता है। कारण कि राजनीतिक पार्टियों की भौगोलिक पहुंच बहुत सीमित है और उनको लगता है कि शायद एक बड़ा वर्ग उनके चयन में बाधा हो और फिर कीमत भी है विदेश में प्रचार (कैंपेनिंग) की। सबसे बड़ी बात है कि राजनीतिक दल पढ़े-लिखे प्रबुद्ध वर्ग से दूर भागते हैं और उनका फोकस उस वोटर वर्ग पर होता है जो कम पढ़ा-लिखा है और गरीब है।
ऐसे किसी भी प्रयोग की सफलता में राजनीतिज्ञों, कानून विशेषज्ञों, संविधान विशेषज्ञों और व्यवस्थापकों के साथ-साथ टेक्नोक्रेट्स की भी अहम भूमिका होगी, जिनको एक साथ मंच पर लाना व एकमत कराना चुनौती पूर्ण कार्य है। आज साइबर सुरक्षा भी अहम मुद्दा बन चुका है। इन सभी चुनौतियों का प्रबंधन जटिल और महंगा जरूर है, लेकिन बूते से बाहर बिल्कुल नहीं।
(अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन (आइएलओ) जेनेवा में सलाहकार। श्रम, सूचना तकनीक एवं सामाजिक न्याय से सम्बद्ध कई पुस्तकों के लेखक।)