उद्योग-व्यवसाय, कला-संस्कृति, सिनेमा, शिक्षा, विज्ञान, खेल, पत्रकारिता, वकालत, चिकित्सा, नौकरशाही और समाजसेवा सहित बहुत सारे क्षेत्रों के लोगों की एक लंबी फेहरिस्त है जिन्होंने अपने क्षेत्र के शिखर पर पहुंचकर राजनीति की ओर रुख किया। हो सकता है कि इन लोगों की सोच यह रही हो कि अपने क्षेत्र में एक स्तर पर पहुंचने के बाद अब उनके लिए वहां कुछ और करने को बचा न हो! लेकिन जरूरी नहीं कि ऐसे सभी लोगों ने यह कदम अपने क्षेत्र में ठहराव की स्थिति के कारण उठाया हो, बल्कि ऐसे भी बहुत लोग हैं जिन्होंने अपने व्यावसायिक कॅरियर में एक मुकाम हासिल करने के तुरंत बाद ही राजनीति की ओर रुख कर लिया। जब-जब ऐसा हुआ, संभव है कि राजनीति का आकर्षण उन्हें अपनी व्यावसायिक ऊंचाई से अधम बीच में ही इधर खींच लाया हो। सब जानते हैं कि इस दौर के सबसे बड़े आंदोलन, अन्ना आंदोलन, के समाजसेवी भी खुद को इस आकर्षण से रोक नहीं पाए थे।
बहरहाल जो भी हो, बेहतर और श्रेष्ठ लोगों के राजनीति की ओर झुकाव ने मौजूदा दौर की राजनीति को भारतीय समाज में उच्चतम पायदान पर पहुंचा दिया है। परिणामस्वरूप एक व्यवसाय के रूप में राजनीति ने हमारे देश में बाकी तमाम व्यवसायों को लगभग पछाड़ दिया है और पाश्चात्य देशों की तर्ज पर अब हमारे यहां भी राजनीति को सीखने और सिखाने के पाठ्यक्रम शुरू होने लगे हैं। अभिभावकों को भी अपने बच्चों को राजनीति में भेजने में कोई गुरेज नहीं रह गया है। यहां बात भारतीय समाज की ही इसलिए की जा रही है क्योंकि जरूरी नहीं कि दुनियां के बाकी देशों में भी राजनीति के प्रति इसी कदर अनुराग हो। अमरीका और पाश्चात्य यूरोपीय देशों में आज भी लोगों का राजनीति की बजाय कॉर्पोरेट जगत के प्रति ज्यादा झुकाव माना जाता है, वहीं हमारे पड़ोसी मुल्क पाकिस्तान में सेना में अधिकारी होने को ज्यादा तरजीह दी जाती है। इसके कारण भी साफ हैं कि जहां पाश्चात्य समाज में कॉर्पोरेट जगत का बोलबाला है, वहीं पाकिस्तानी समाज में सेना का दबदबा किसी से छिपा नही है। यह समकालीन सामाजिक मूल्यों पर निर्भर करता है और समकालीन मूल्यों का शाश्वत मूल्यों से तारतम्य हो भी सकता है और नहीं भी।
सही है कि किसी व्यवसाय विशेष के प्रति रुझान समय, स्थान और परिस्थितियों के साथ बदलता रहता है। ऐसा नहीं है कि भारतीय समाज में राजनीति के प्रति सदैव इसी प्रकार का आकर्षण रहा है, बल्कि कभी शिक्षा क्षेत्र के प्रति भी ऐसा ही भाव हुआ करता था और किसी जमाने में एक व्यवसाय के रूप में कृषि और व्यापार के प्रति भी लोगों का झुकाव कम नहीं था। इन सबसे परे स्वाधीनता आंदोलन के दौर में स्वतंत्रता सेनानी बनने के लिए बड़े-बड़े घरानों के लोगों ने बड़े से बड़े काम-धंधों और आइसीएस जैसी बड़ी से बड़ी नौकरी तक को तिलांजलि दे डाली थी। यह अलग बात है कि उस समय पूरे समाज में देश के लिए मर-मिटने का एक जज्बा था और लोग अपने लिए कम, बल्कि अपनी आने वाली पीढ़ी के भविष्य को सुनहरा बनाने के लिए प्राणों तक को न्योछावर करने के लिए तत्पर रहते थे। अत: राजनीति में प्रवेश करने वाले ऐसे तमाम लोगों से कमोबेश उसी तरह की देश सेवा की भावना और निष्ठा की अपेक्षा स्वाभाविक है।
इस पृष्ठभूमि में राजनीति के एक व्यवसाय के रूप में वर्तमान शिखर पर पहुंचने के सफर को दिमागी खुलेपन और सकारात्मक दृष्टिकोण के साथ देखने-समझने की जरूरत है क्योंकि हमें यह तो मानना ही पड़ेगा कि इस क्षेत्र में लोगों ने जरूर कुछ ऐसा किया है कि हर कोई नहीं तो बहुत सारे लोग इसमें आने की इच्छा रखने लगे हैं। जाहिर है इसके पीछे की उस खास वजह को तो स्वीकार करना ही पड़ेगा, जिसने राजनीति को विशेष आकर्षण का क्षेत्र बनाया है और इसलिए इस क्षेत्र में अब तक रहे लोगों के योगदान को सामने रखना होगा।
असल में तो राजनीति का मौजूदा मुकाम उन्हीं लोगों के त्याग और परिश्रम का फल है, जिसके चलते तमाम बुराइयों और आलोचनाओं के बावजूद लोग इधर खिंचे चले आ रहे हैं। वैसे भी राजनीति में आने के लिए और फिर इसमें बने रहने के लिए त्याग की असल भावना और उदारता का होना जरूरी है। राजनीतिक व्यक्ति से अपने परिवार से बाहर निकलकर अपने क्षेत्र के लोगों को परिवार के रूप में, न चाहते हुए भी, देखने की उम्मीद की जाती है। आज के दौर की राजनीति एक पूर्णकालिक व्यवसाय है जिसमें केवल और केवल वही टिक पा रहा है जो इसे शिद्दत से कर पा रहा है और इसमें रच-बस जा रहा है। जनता की आशाओं-आकांक्षाओं पर खरा न उतरने की स्थिति में राजनीतिज्ञों के साथ हो रहे दुव्र्यवहार की बढ़ती घटनाओं से यह बात अच्छे से साफ हो जाती है।
गौरतलब है विभिन्न क्षेत्रों में अपनी धाक जमाने और वहां नेतृत्व के गुर सीखने के बाद राजनीति में आए लोगों के संगम से देश की राजनीति को तो अवश्य लाभ पहुंचा है, लेकिन इससे उनके मूल क्षेत्र का कुछ न कुछ क्षति अवश्य उठानी पड़ी है, क्योंकि ऐसे सभी श्रेष्ठ लोग यदि अपने क्षेत्र में रहते तो उनके संबंधित क्षेत्र को और भी ऊंचाइयां देखने को मिलती। लेकिन यहां सवाल फिर वही आता है कि प्रतिभाशाली व श्रेष्ठ लोगों की जरूरत कहां ज्यादा है और यदि माना जाए कि आज हर मर्ज की दवा राजनीति ही बनती जा रही है तो फिर बेहतर लोगों का राजनीतिक प्रवेश तार्किक, समयानुकूल और न्यायोचित है। स्थिति भी काफी कुछ यही बनती जा रही है कि चाहे आर्थिक सुधार हो, प्रशासनिक, पुलिस, शिक्षा, खेल या स्वास्थ्य सेवाओं में सुधार हो, सभी के लिए पूरा समाज राजनीतिक नेतृत्व की ओर बड़ी आशा से टकटकी लगाए हुए है। इसके अलावा जब हम चारों ओर से कमजोर लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं वाले देशों से घिरे हों, तो ऐसे में दुनिया के इस सबसे बड़े लोकतंत्र को और परिष्कृत तथा मजबूत बनाने के लिए राजनीति में श्रेष्ठ व बेहतर लोगों के आने के इस प्रवाह के बने रहने में ही देश-राष्ट्र और अंततोगत्वा समाज की भलाई है। 21वीं सदी लोकतंत्र के साथ-साथ राजनीति की सदी भी है।
( लेखक, भारतीय पुलिस सेवा के अधिकारी। राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग, नई दिल्ली में पदस्थापित।)