यहां दो सवाल अहम हैं, जिनके बारे में समूचा देश जानना चाहता है। पहला ये कि आपदा से निपटने में हमारी पूरी तैयारी क्यों नहीं है? दूसरा सवाल ये कि क्या यही हादसा पूर्वोत्तर के किसी राज्य की बजाय दिल्ली या मुंबई में हुआ होता तो भी क्या बचाव के प्रयास इसी तरीके से होते? आपदा प्रबंधन मुस्तैद होता तो कोई कारण नहीं कि जो काम छोटा-सा देश थाइलैंड कर सकता है, वह हम नहीं कर पाते। यहां साधनों से अधिक महत्वपूर्ण इच्छाशक्ति है। सुप्रीम कोर्ट की फटकार नहीं पड़ी होती तो शायद मेघालय सरकार तो कुंभकरणी नींद से जागती भी नहीं। सरकार तो एक सप्ताह बाद ही उसमें फंसे श्रमिकों को शायद मृत मान चुकी है। शायद इसीलिए अदालत को कहना पड़ा कि चमत्कार हो सकता है।
दुनिया के अलग-अलग देशों में पहले भी ऐसे चमत्कार हो चुके हैं। आठ साल पहले चिली में एक खदान हादसे में 33 लोग फंस गए थे। चिली सरकार ने 69 दिनों के मैराथन प्रयासों के बाद सभी को सुरक्षित बाहर निकाल लिया था। इस दौरान सरकार ने अलग-अलग स्तर पर काम किया। विदेशों से भी मदद ली। दूसरी तरफ मेघालय खान हादसे में फंसे लोगों को बचाने के लिए अब तक गंभीर प्रयास होते दिख नहीं रहे। एक तरफ पूर्वोत्तर के राज्यों को देश की मुख्यधारा में लाने की बड़ी-बड़ी बातें होती हैं, लेकिन इतने बड़े हादसे के बावजूद देश में जो हलचल होनी चाहिए थी, नजर नहीं आई। कुछ साल पहले हरियाणा में बोरवैल में प्रिंस नाम का एक बच्चा गिर गया था। देश के मीडिया ने इसे राष्ट्रीय मुद्दा बना दिया था। हरियाणा से लेकर केन्द्र सरकार भी जी-जान से जुट गई थी। देश भर में प्रिंस की सलामती के लिए दुआओं का लंबा दौर चला था। मेघालय में १५ जिंदगियां मौत से संघर्ष कर रही हैं, लेकिन न कहीं यज्ञ हो रहे और न कहीं प्रार्थना। मीडिया भी अपनी भूमिका उस तरह नहीं निभा रहा जैसी उससे उम्मीद की जाती है। दिल्ली-मुंबई की घटनाएं ही खबर क्यों बनें? जब हम कश्मीर से कन्याकुमारी और गोवा से गुवाहाटी को एक ही देश मानते हैं तो संवेदनाएं शून्य क्यों हो जाती हैं। इस मुद्दे पर केन्द्र सरकार को मेघालय सरकार के भरोसे नहीं बैठा रहना चाहिए। अधिक सक्रियता दिखानी चाहिए। मामला १५ लोगों की जान बचाने का है। अगर चिली के खान श्रमिक 69 दिन बाद बचाए जा सकते हैं तो मेघालय में क्यों नहीं?
जरूरत राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन को और बेहतर बनाने की है। बचाव के काम आने वाले उपकरणों की उपलब्धता के साथ इस काम की तकनीक की विशेषज्ञता हासिल करने की भी है। विदेशों में हुए ऐसे हादसों के दौरान चलाए गए बचाव अभियान से सीखने की भी आवश्यकता है। आपदा कभी दस्तक देकर नहीं आती। हमारे लिए इससे ज्यादा शर्म की बात क्या हो सकती है कि खान में फंसे लोगों को बचाने के लिए अदालत को हस्तक्षेप करना पड़े। सरकार और आपदा प्रबंधन दल बचाव प्रयास में गंभीरता से जुटे नजर आने तो चाहिए। ऐसी हालत में सब कुछ भगवान भरोसे छोड़कर बैठ जाना क्या हार मान लेना नहीं माना जाए? विज्ञान के क्षेत्र में भारत ने उल्लेखनीय उपलब्धि हासिल की है, लेकिन आपदा से निपटने की तैयारियों को और पुख्ता बनाने की जरूरत अभी बाकी है।