scriptमाननीयों का मेहनताना… | MPs' pay hike | Patrika News
ओपिनियन

माननीयों का मेहनताना…

जब मजदूर-कर्मचारी-अधिकारी सबके वेतन-भत्ते एक आयोग की सिफारिश से बढ़ते हैं, तब सांसदों के भी उसी तरीके से क्यों नहीं बढ़ें ?

May 03, 2016 / 08:02 pm

विकास गुप्ता

Parliament

Parliament

-गोविंद चतुर्वेदी
संसद सदस्यों के वेतन भत्तों पर बनी संसदीय समिति ने उनके वेतन-भत्ते और अन्य सुविधाओं को डबल करने की सिफारिश की है। इसमें कोई बुराई नहीं है। जब सबके वेतन-भत्ते बढ़ रहे हैं तो उनके भी बढऩे ही चाहिए। सवाल केवल इतना है कि, यह बढ़ोत्तरी कितनी हो और कौन बढ़ाए? अब तक की परम्परा में सांसदों के मामले में यह काम संसद और विधायकों के मामले में सम्बंधित विधानसभाएं करती हैं।

अधिकांश मौकों पर यह काम संसदीय भाषा के शब्द मुखबंद का अघोषित प्रयोग करके होता है। यानी कोई विरोध नहीं, कोई बहस नहीं। कहीं-कहीं कम्यूनिस्ट सांसद-विधायक इसका जुबानी विरोध करते दिखते हैं लेकिन जब सदन से विधेयक पास हो रहा होता है तब वे या तो सदन में नहीं होते या फिर चुप हो जाते हैं। जनता में यह व्यवहार, खूब आलोचना का विषय बनता है। शायद इसीलिए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी, इसे एक साल से लटकाए हुए हैं। वे चाहते हैं कि, सांसद अपने वेतन-भत्ते स्वयं ही नहीं बढ़ाएं। बात सही भी है।

जब मजदूर-कर्मचारी-अधिकारी सबके वेतन-भत्ते एक आयोग की सिफारिश से बढ़ते हैं, तब सांसदों के भी उसी तरीके से क्यों नहीं बढ़ें। यानी इसके लिए एक आयोग होना चाहिए। वह हर पांच साल में बने। सांसद ही नहीं देश के तमाम विधायकों के वेतन-भत्तों के बारे में उसी तरह सिफारिश करे, जैसे केन्द्रीय वेतन आयोग करता है। यह कहने का कोई तर्क-आधार नहीं है कि, वेतन डबल कर दो या केबिनेट सैकेट्री के बराबर कर दो। आखिर केबिनेट सैकेट्री करीब-करीब तीस साल की नौकरी करके इस पद पर पहुंचता है । तब उसे दो लाख रुपए मासिक मिलते हैं।

नये आईएएस को तो पचास हजार रुपए मासिक ही मिलते हैं जबकि पहली बार के सांसद को भी आज तो दसवीं बार जीते सांसद के बराबर करीब-करीब पौने तीन लाख रुपए मासिक मिल जाते हैं, वेतन-भत्तों और सुविधाओं के रूप में। कई सुविधाएं जैसे मुफ्त घर, बिजली, टेलीफोन, चिकित्सा सुविधा इसमें शामिल नहीं है। इस बात में किसी को कोई ऐतराज नहीं होगा कि, उनके वेतन-भत्ते बढ़े लेकिन कितने बढ़े, इस पर सबकी नजर रहेगी।

खास तौर पर तब जबकि हमारी संसद और विधानसभाएं साल-दर-साल अपनी चमक खोती जा रही हैं। उनमें भ्रष्ट और अनैतिक आचरण के आरोपी और अपराधियों की संख्या बढ़ती जा रही है । सदनों में जनता की कम और राजनीति की बातें ज्यादा होने लगी है । वहां बहस कम सुनने को मिलती हैं। हंगामें, मारपीट और असंसदीय शब्दों की जुगलबंदी ज्यादा होने लगी है। वो जमाना गया जब राजनीति में लोग समाज सेवा का शौक पूरा करने आते था। आज तो ज्यादातर के लिए यह एक व्यवसाय से ज्यादा नहीं है।

ऐसे में उन्हें अपना घर चलाने और अपने मतदाताओं की आवभगत करने लायक इतना तो मिलना ही चाहिए कि, उन्हें मतदाता को या उसके नाम पर पैसे वालों को छीलने की जरूरत नहीं पड़े। इसी के साथ अब समय आ गया है कि वेतन-भत्तों के साथ उनके कर्त्तव्यों की भी व्याख्या हो। उन्हें क्या तो करना ही है और क्या नहीं करना । यह भी कानूनी तौर पर तय हो। सवालों के लिए धन लेकर संसदीय व्यवस्था को पलीता लगाने की छूट तो उन्हें किसी सूरत में नहीं मिलनी चाहिए।

Home / Prime / Opinion / माननीयों का मेहनताना…

loksabha entry point

ट्रेंडिंग वीडियो