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‘मां’ को मनाही क्यों?

आधुनिक दौर में जब महिलाएं हर मोर्चे पर पुरुषों के साथ कंधे से कंधा
मिलाकर न केवल आगे बढ़ रहीं है बल्कि कई मामलों में तो पुरुषों को भी पीछे
छोडऩे में लगी हैं

Feb 05, 2016 / 11:37 pm

शंकर शर्मा

temples

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आधुनिक दौर में जब महिलाएं हर मोर्चे पर पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर न केवल आगे बढ़ रहीं है बल्कि कई मामलों में तो पुरुषों को भी पीछे छोडऩे में लगी हैं। ऐसे में देश के प्रमुख मंदिरों और दूसरे आराधना स्थलों में महिलाओं को प्रवेश करने से रोकने की घटनाएं सचमुच सामंती सोच वाली नजर आती है। ताजा मामला महाराष्ट्र के शनि शिंगणापुर मंदिर का है जहां लम्बे विवाद के बाद महिलाओं को प्रवेश का रास्ता खुला है। मंदिरों में मर्यादा के नाम पर महिलाओं को प्रवेश से क्यों रोका जा रहा है? इस वर्जना के कारण कहां तक जायज हैं? इन मुद्दों पर धर्माचार्यों व चिंतकों की राय, आज के स्पॉट लाइट में…

आवश्यक है मात्र शुचिता की मर्यादा
साध्वी ऋतंभरा
कुछ परंपराएं हैं हमारे धर्म में, जिसके पीछे आधार होता है। उदाहरण के तौर पर जिन दिनों स्त्रियां विशेष दिनों में होती हैं, उस दौरान शुचिता की दृष्टि से पूजा-उपासना पर रोक रहती है। एक वैज्ञानिक आधार भी रहता है कि हमारा शरीर गंदगी बाहर फेंक रहा होता है। ऐसे में किसी अध्यात्मिक स्थान पर जाने पर हमारी चेतना का उध्र्वगमन होने लगता है। इतनी सी बात के कारण यह मान्यता बनाना ठीक नहीं है कि महिलाओं को हमारे हिंदू धर्म में समानता का अधिकार नहीं है।

बनती-बदलती परंपराएं
कई बार हम ऐसी परंपराएं बना लेते हैं लेकिन समय के साथ वे टूटने भी लगती हैं। जो महापुरुष होते हैं, वे देखते हैं कि आज के युग के अनुसार समाज की क्या जरूरत है? भगवान कृष्ण ने इंद्र की पूजा की परंपरा को तोड़कर गोवर्धन की पूजा को परंपरा बना दिया। अलबत्ता यह जरूर है कि यदि किसी स्थान मर्यादा नहीं बनाएंगे तो उस स्थान की महिमा नहीं रह जाती। इसीलिए मैं शुचिता और शुद्धता की पक्षधर हूं। इसमें भेद जैसी कोई बात ही नहीं है। जरा सोचिए, ईश्वर भी जब धरती पर अवतार लेकर आते हैं तो वे किसी स्त्री की कोख की शरण में आते हैं। जो जगदीश्वर को आश्रय दे रही हो अपनी कोख में, तो इस पर कोई प्रश्नचिन्ह लगाया ही नहीं जा सकता। मेरा मानना है कि अगर लिपे- पुते चूल्हे हों तो सामान्य सेवक की रसोई में भी भगवान विराजेंगे। गंदे, सड़ांध मारते वातावरण की रसोई यदि किसी ब्राह्मण की ही क्यों न हो, ठाकुर जी कभी भोग लगाने वाले नहीं है।

आधी आबादी का सम्मान
हमारे सनातन धर्म में तो स्त्रियों को बहुत ही उच्च और सम्मान का स्थान मिला हुआ है। यदि यहां भेदभाव होता तो मेरे जैसी साध्वी के लिए व्यास पीठ पर बैठकर हजारों पुरुषों और स्त्रियों के सामने धर्म की बात करना संभव ही नहीं होता। वेदों की ऋचाएं स्त्रियों ने रची हैं। दो पुरुषों में जब शास्त्रार्थ होता था तब कोई मैत्रेयी या गार्गी ही फैसला देती थी कि विजय किसकी हुई? राम जी यज्ञ करना चाहते थे और जानकी वहां नहीं थी तो मां जानकी की स्वर्ण प्रतिमा बनाई गई तो उन्हें यज्ञ करने का अधिकार मिला। हिंदू समाज में स्त्री के बिना आप पाप तो कर सकते हो लेकिन पुण्य करने का अधिकार नहीं है। इतना बड़ा गौरव मुझे नहीं लगता कि विश्व के किसी धर्म में होगा।

बेटी बचाने की करें जिद
गुलामी के बाद या गुलामी के दौरान भारत में स्त्रियों की दुर्दशा हुई। मुझे लगता है कि भारत में शनिदेव को तेल चढ़ाने दें या वहां जाने दें या न जाने दें, इसकी लड़ाई लडऩे की कोई जरूरत नहीं है। लड़ाई लडऩी है तो जन्म का अधिकार मांगना पड़ेगा। शनिदेव पर तेल चढ़ाने से कोई भारी कल्याण होने वाला नहीं है। जन्म तो लेने दें कन्या को। अभी तो कोख में ही मार-मार कर फेंक रहे हैं। फिलहाल नारी के अस्तित्व का सवाल है। उसे बचाना जरूरी है। मुझे तो लगता है कि शनिदेव पर भारत में स्त्रियों को तेल चढ़ाने की जिद क्यों करनी है? जिस देश में दुर्गा की पूजा करने वाले बेटी को मार रहे हैं, उसे रोकने की जरूरत है। इसके लिए करें जिद।


हद तो रखनी ही होगी
आचार्य धर्मेन्द्र
ऐसा कोई भी मंदिर भारत में नहीं हैं मेरी जानकारी में, जहां महिलाओं को प्रवेश की अनुमति न हो। हर चीज को गलत तरीके से पेश करने और उस पर विवाद खड़ा करने की हमारे यहां प्रवृत्ति हो गई है। महिलाओं के पूजन पर रोक संबंध में जिस मंदिर की बात हो रही है, उस संदर्भ में मेरा मानना है कि वहां कुछ मर्यादाएं हैं तो मर्यादाओं का पालन करने में कहीं कोई नुकसान नहीं है। ग्रहों की पूजा का संबंध तंत्र विद्याओं और अनुष्ठानों से है।

वहां जहां तक पुरुष जाते हैं, वहां तक महिलाएं भी जाती हैं। गर्भ गृह में केवल पुजारी को ही जाना चाहिए। यह सार्वभौम मर्यादा बननी ही चाहिए। भारत में अनेक मंदिर हैं जहां महिलाएं जाकर पूजन करती हैं। भारत में हिंदू धर्म ही है, जिससे अधिक मातृ पूजक संसार में कोई नहीं है। हमारे मंदिर में बहुत सी मर्यादाएं हैं, उसके मुताबिक उन्हें समझा जाना चाहिए। इसीलिए कहता हूं कि गर्भगृह तक केवल पुजारी को ही जाना चाहिए, वहां अन्य किसी को भी जाने की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए, चाहे कोई स्त्री हो या पुरुष।

यहां तो बख्श दें
हमारे यहां यह परंपरा या मर्यादा है कि रजस्वला नारी को पूजन या उपासना की अनुमति नहीं दी सकती है। इस मामले में कब वे रजस्वला हो जाएंगी इसका कोई समय तो होता नहीं है। यह कोई क्रिकेट मैच तो है नहीं जिसका महिलाएं कुछ सेनेटरी नेपकिन पहनकर लुत्फ ले सकती हों। किसी भी समय यदि कोई महिला रजस्वला हो जाए तो किसी भी पवित्र स्थान की मर्यादा भंग होने की आशंका रहती है। ऐसे में महिलाओं को एक हद तक ही आगे जाने दिया जाता है।

यह वैज्ञानिक सत्य है जब महिलाएं रजस्वला होती हैं तो उनकी अवस्था बहुत ही नाजुक होती है। गंदगी बाहर निकल रही होती है। हां, इतना जरूर है कि कामकाज की संस्कृति में जब से समानता की शुरुआत हुई है, तब से सभी स्थानों पर समानता की बात की जाने लगी है। लेकिन, मंदिर में पूजा, उपासना कोई राजनीति नहीं है। खेल नहीं है यह सब। मेरा तो एक ही आग्रह है कि समानता के इस मामले को राजनीति, अभिनय आदि तक ही सीमित रखें। मंदिरों और पूजा जैसे कार्यक्रमों को इससे बख्श देना चाहिए। वर्तमान में अस्मिता किसी मंदिर में महिला के पूजन करने देने या नहीं करने देने से खतरे में नहीं। खतरा तो उन खुलेआम दिखाए जा रहे रीयलिटी शो से है जहां हास्य के नाम पर सेक्स को माध्यम बनाया जा रहा है।



यह वर्जना धर्म के ठेकेदारों का खेल
विष्णु नागर वरिष्ठ पत्रकार एवं चिंतक
महिलाओं को मंदिर में प्रवेश न देने के जितने भी मामले सामने आ रहे हैं उसमें हम यह देख रहे हैं कि किसी के पास इस मनाही का ठोस जवाब नहीं। हर कोई सालों पुरानी परम्परा का हवाला देने में लगा है। यह तो सचमुच अजीब सा तर्क है कि एक ओर महिलाएं आज हर मोर्चे पर अपनी काबिलियत का डंका बजा रही हैं वहीं पुरुष प्रधान समाज इस बात को साबित करने में तुला है कि धर्म के असली ठेकेदार वह ही हैं।

हर जगह महिलाएं आगे
यूं तो हमारे शास्त्र यह कहते हैं कि जहां नारियों की पूजा होती है वहां देवताओं का निवास होता है। लेकिन दूसरी ओर जहां महिलाएं देव दर्शन करना चाहती है वहां उनको अपवित्र होने के संदेह में प्रवेश ही नहीं करने दिया जाता। यह तो अजीब सा हाल है कि एक और महिलाएं हर क्षेत्र में आगे आने के प्रयास कर रहीं हैं। साथ ही उनको आगे लाने का प्रयास भी किया जा रहा है। महिलाओं को इसके लिए खासी मशक्कत करनी पड़ी है।

महिलाएं नौकरी करने जा सकती हैं, सिनेमा जा सकती हैं, वायुसेना में भर्ती हो सकती हैं, संसद और विधानसभाओं में प्रवेश पा सकती हैं। यहां तक कि हमारे देश में राष्ट्रपति व प्रधानमंत्री तक के पद तक पहुंच सकती हैं। मगर कुछ मंदिर इतने अधिक ‘पवित्र’ हो गए हैं कि महिलाओं की मौजूदगी मात्र से ही इन परिसरों की पवित्रता नष्ट हो सकती है। सदियों से कहीं दलितों को तो कहीं महिलाओं का मंदिरों में पूजा-अर्चना से रोका जाता रहा है। शिक्षा के प्रसार के साथ-साथ इस तरह से उदाहरण अब कम ही रह गए हैं। बड़ा तर्क यह दिया जाता है कि महिलाएं रजस्वला होने के दौरान अपवित्र रहती हैं। हैरत की बात यह है कि मासिक धर्म महिलाओं की प्रजनन क्षमता का सूचक है।

जिसने हमें पैदा किया वह हमारी मां है लेकिन अगर मंदिर में चली जाए तो मंदिर अपवित्र हो जाते हैं। सच तो यह है कि धार्मिक परिपाटी तो कोरा बहाना है। इस बात का किसी वैज्ञानिक सोच से कतई लेना-देना नहीं है। यह सब सामंती दौर से चला आ रहा है जहां स्त्री का इस्तेमाल तो किया जाता है लेकिन जब उसे अधिकार देने की बारी आती है तो इस तरह का मुखौटा ओढ़ लिया जाता है। मसला केवल मंदिरों का ही नहीं बल्कि उन सभी आराधना स्थलों का है जहां महिलाओं को इस तरह से अपमानित करने का प्रयास किया जाता है।

सामंतवाद की झलक
भला जब हम एक ही ईश्वर के बनाए हुए खुद को मानते हैं तो इसे कोई कैसे तय कर सकता है कि कौन मंदिर व दूसरे आराधना स्थलों में प्रवेश कर सकता है और कौन नहीं? भेदभाव के ये सब प्रपंच दरअसल ऐसी वर्जना सामंतवाद और पंडे-पुजारियों के दिमाग का खेल है। हमने यह भी देखा है कि न तो कोई सरकार और न ही राजनेता, सबरीमला मंदिर का मामला हो या शनि शिंगणापुर मंदिर का, किसी ने महिलाओं के हक की आवाज नहीं उठाई। खुद महिलाएं ही अपने हक की मांग को लेकर आगे आ रहीं हैं। धर्म के ठेकेदार कहलाने वाले भी चुप्पी साधे दिखते हैं।

सबको सोचना होगा
यह एक गंभीर विषय है जिस पर धर्म गुरुओं और राजनेताओं सबको सोचना होगा। मंदिर प्रवेश की मांग को महिलाओं की प्रतीकात्मक लड़ाई से जोड़ा जाना चाहिए, जिसमें वे हर क्षेत्र में बराबरी का हक मांग रहीं हैं। मांगे भी क्यों नहीं, हम खुद इस वर्ग को आधी आबादी का दर्जा देते हैं।

सकारात्मक पहल जरूरी
मंदिर व अन्य आराधना स्थलों में प्रवेश के मुद्दों को राजनीति का विषय तो कतई नहीं बनाया जाना चाहिए। आधी आबादी की यह जागरुकता अंतत: उन सब लोगों के खिलाफ ही जाएगी जो उनके अधिकारों के संरक्षण के मसले पर ‘धृतराष्ट्रÓ बने बैठे हैं। राजनेता और धर्मगुरुओं को इस दिशा में सकारात्मक पहल करनी ही होगी। अन्यथा नारी शक्ति की अवहेलना हम सबको भारी पड़ सकती है।


किसी भी मंदिर में प्रवेश करने और पूजा करने से किसी भी महिला को रोका नहीं जाना चाहिए। ‘जिस घर में लड़की का जन्म होता है उस घर में देवत्व का वास होता है, तो ऐसे में एक महिला को मंदिर में जाने की अनुमति क्यों नहीं होनी चाहिए जहां देवता निवास करते हैं? संत मुरारी बापू , पिछले दिनों नई दिल्ली में राजघाट पर कथा के दौरान

महिलाएं यहां भी वर्जित
सबरीमाला अय्यप्पा मंदिर (केरल)
पद्मनाभ स्वामी मंदिर (केरल)
पतबौसी मंदिर (असम)

राजस्थान में भी रोक
राजस्थान में शिव के बारहवें ज्योतिर्लिंग की मान्यता वाले शिवाड़ स्थित घुश्मेश्वर महादेव मंदिर के गर्भगृह में महिलाओं का प्रवेश वर्जित। शिक्षा मंत्री रहते हुए भाजपा नेता घनश्याम तिवाड़ी ने गर्भगृह में सपत्नीक प्रवेश किया था । मंदिर के गर्भगृह में फिर से प्रवेश वर्जित।

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