scriptनारों से नहीं रुकेगी प्राकृतिक आपदाएं | Natural disasters will not stop with slogans | Patrika News
ओपिनियन

नारों से नहीं रुकेगी प्राकृतिक आपदाएं

यह दुर्भाग्यपूर्ण ही है कि आज पर्यावरण को बचाने के लिए भाषणबाजी तो बहुत होती है लेकिन धरातल पर काम नहीं हो पाता है। यही कारण है कि पर्यावरण की स्थिति बद से बदतर होती जा रही है।

नई दिल्लीJun 19, 2020 / 03:21 pm

shailendra tiwari

Coronavirus: अहमदाबाद में कोरोना मरीजों की संख्या 17 हजार के करीब

Coronavirus: अहमदाबाद में कोरोना मरीजों की संख्या 17 हजार के करीब

रोहित कौशिक, वरिष्ठ पत्रकार

पिछले दशकों में देश ने तापमान में वृद्धि और मानसून में कमी का सामना किया है। शोधकर्ताओं का कहना है कि इस बात के पुख्ता प्रमाण हैं कि इस बदलाव को मानव गतिविधियों ने प्रभावित किया है। ‘असेसमेंट आफ क्लाइमेट चेंज ओवर द इंडियन रीजन’ नामक रिपोर्ट के मुताबिक अगर जलवायु परिवर्तन को रोकने के लिए बड़े कदम नहीं उठाए गए तो लू के थपेड़ों में तीन से चार गुना बढ़ोतरी दिखाई देगी और समुद्र का जलस्तर 30 सेंटीमीटर तक उठ सकता है। दरअसल लाॅकडाउन के दौरान पर्यावरण पर पड़े सकारात्मक असर से यह बात तो साफ हो गई है कि यदि हम चाहें तो प्रदूषण कम कर सकते हैं। यह दुर्भाग्यपूर्ण ही है कि आज पर्यावरण को बचाने के लिए भाषणबाजी तो बहुत होती है लेकिन धरातल पर काम नहीं हो पाता है। यही कारण है कि पर्यावरण की स्थिति बद से बदतर होती जा रही है।
इस दौर में जिस तरह से मौसम का चक्र बिगड़ रहा है, वह हम सबके साथ-साथ समाज के उस वर्ग के लिए भी चिन्ता का विषय है जो ग्लोबल वार्मिंग पर चर्चा करने को एक फैशन मानने लगा था। दरअसल इन दिनों सम्पूर्ण विश्व में पर्यावरण बचाने के नारे जोर-शोर से सुने जा सकते हैं लेकिन जब नारे लगाने वाले ही इस अभियान की हवा निकालने में लगे हुए हों ,तो पर्यावरण पर संकट के बादल मंड़राने तय हैं। आज विभिन्न देशों में अनेक मंचों से जो पर्यावरण बचाओ आन्दोलन चलाया जा रहा है ,उसमें एक अजीब विरोधाभास दिखाई दे रहा है। पर्यावरण सभी बचाने चाहते हैं लेकिन अपने त्याग की कीमत पर नहीं बल्कि दूसरों के त्याग की कीमत पर। स्थाई विकास ,ग्रीन इकोनाॅमी और पर्यावरण सम्बन्धी विभिन्न चुनौतियों पर चर्चा जरूरी है लेकिन इसका फायदा तभी होगा जब हम व्यापक दृष्टि से सभी देशों के हितों पर ध्यान देंगे।
गौरतलब है कि ग्रीन इकोनाॅमी के तहत पर्यावरण को नुकसान पहुंचाए बिना सभी वर्गों की तरक्की वाली अर्थव्यवस्था का निर्माण करना शामिल है लेकिन दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि हरित अर्थव्यवस्था के उद्देश्योे के क्रियान्वयन के लिए विकसित देश ,विकासशील देशों की अपेक्षित सहायता नहीं करते हैं। स्पष्ट है कि विकसित देशों की हठधर्मिता की वजह से पर्यावरण के विभिन्न मुद्दों पर कोई स्पष्ट नीति नहीं बन पाती है। दरअसल इस दौर में पर्यावरण की स्थिति किसी से छिपी नही है। हालात यह हंै कि मौसम का समस्त चक्र भी अनियमित हो गया है। वैज्ञानिकों का मानना है मौसम की यह अनिश्चितता और तापमान का उतार-चढ़ाव जलवायु परिवर्तन के कारण है। जलवायु परिवर्तन के कारण एक ही ऋतु में किसी एक जगह पर ही मौसम में उतार-चढ़ाव या परिवर्तन हो सकता है।

दरअसल इस दौर में पर्यावरण को लेकर कुछ अन्तराल पर विभिन्न अध्ययन प्रकाशित होते रहते हैं। कभी-कभी इन अध्ययनों की विरोधाभासी बातों को पढ़कर लगता है कि पर्यावरण और जलवायु परिवर्तन जैसे मुद्दों पर हौव्वा खड़ा किया जा रहा है। लेकिन जब पर्यावरण के बिगड़ते स्वरूप पर गौर किया जाता है तो जल्दी ही यह भ्रम टूट जाता है। वास्तव में हम पिछले अनेक दशकों से भ्रम में ही जी रहे हैं। यही कारण है कि पर्यावरण के अनुकूल तकनीक के बारे में सोचने की फुरसत किसी को नहीं है। पुराने जमाने में पर्यावरण के हर अवयव को भगवान का दर्जा दिया जाता था। इसीलिए हम पर्यावरण के हर अवयव की इज्जत करना जानते थे। नए जमाने में पर्यावरण के अवयव वस्तु के तौर पर देखे जाने लगे और हम इन्हें मात्र भोग की वस्तु मानने लगे।
उदारीकरण की आंधी ने तो हमारे समस्त ताने-बाने को ही नष्ट कर दिया। इस प्रक्रिया ने पर्यावरण के अनुकूल समझ विकसित करने में बाधा पहुंचाई। यह समझ विकसित करने के लिए एक बार फिर हमें नए सिरे से सोचना होगा। हमें यह मानना होगा कि जलवायु परिवर्तन की यह समस्या किसी एक शहर ,राज्य या देश के सुधरने से हल होने वाली नहीं है। पर्यावरण की कोई ऐसी परिधि नहीं होती है कि एक जगह प्राकृतिक संसाधनों का दोहन या प्रदूषण होने से उसका प्रभाव दूसरी जगह न पड़े। इसीलिए इस समय सम्पूर्ण विश्व में पर्यावरण के प्रति चिन्ता देखी जा रही है। हालांकि इस चिन्ता में खोखले आदर्शवाद से लिपटे हुए नारे भी शामिल हैं। जलवायु परिवर्तन पर होने वाले सम्मेलनों में हम इस तरह के नारे अक्सर सुनते रहते हैं।
सवाल यह है कि क्या खोखले आदर्शवाद से जलवायु परिवर्तन का मुद्दा हल हो सकता है ? यह सही है कि ऐसे सम्मेलनों के माध्यम से विभिन्न बिन्दुओं पर सार्थक चर्चा होती है और कई बार कुछ नई बातें भी निकलकर सामने आती हैं। लेकिन यदि विकसित देश एक ही लीक पर चलते हुए केवल अपने स्वार्थों को तरजीह देने लगें तो जलवायु परिवर्तन पर उनकी बड़ी-बड़ी बातें बेमानी लगने लगती हैं।

दरअसल जब हम प्रकृति का सम्मान नहीं करते हैं तो वह प्रत्यक्ष रूप से तो हमें हानि पहुंचाती ही है, परोक्ष रूप से भी हमारे सामने कई समस्याएं खड़ी करती है। पिछले दिनों इंटरनेशनल यूनियन फाॅर द कंजर्वेशन आॅफ नेचर (आईयूसीएन) द्वारा जारी रिपोर्ट में बताया गया था कि जलवायु परिवर्तन के कारण महिलाओं और लड़कियों के प्रति होने वाली हिंसा में इजाफा हुआ है। रिपोर्ट के अनुसार गरीब देशों में जलवायु परिवर्तन को रोकने में सरकारें विफल हो रही हैं। इसके कारण संसाधन बर्बाद हो रहे हैं। इसका असर बढ़ती हुई लैंगिक असमानता के रूप में दिखाई दे रहा है। जलवायु परिवर्तन से जूझ रहे इलाकों में संसाधनों पर काबिज होने के लिए वर्ग संघर्ष जारी है। इसमें जीत पुरुषों की होती है और महिलाएं दोयम दर्जे का जीवन जीने के लिए मजबूर हो जाती हैं। यह दुर्भाग्यपूर्ण ही है कि इस दौर में कई तौर-तरीकों से समाज पर जलवायु परिवर्तन का असर पड़ रहा है।
इस दौर में यह बात किसी से छिपी नहीं है कि यदि ग्रीन हाउस गैसों की वृ़िद्ध इसी तरह जारी रही तो दुनिया को लू ,सूखे ,बाढ़ व समुद्री तुफान जैसी प्राकृतिक आपदाओं का सामना करना पडे़गा। कुपोषण ,पेचिश ,दिल की बीमारियां एवं श्वसन सम्बन्धी रोगों मे इजाफा होगा। बाढ़ और मच्छरों के पनपने से हैजा और मलेरिया जैसी बीमारियां बढ़ेंगी। तटीय इलाकों पर अस्तित्व का संकट पैदा हो जाएगा और अनेक परिस्थितिक तंत्र ,जन्तु एवं वनस्पतियां विलुप्त हो जाएंगी। 30 फीसद एशियाई प्रवाल भित्ती जो कि समुद्रीय जीवन का एक महत्वपूर्ण हिस्सा हंै ,अगले तीस सालों में समाप्त हो जाएगीं। वातावरण में कार्बन डाई आक्साइड की मात्रा बढ़ने से समुद्र के अम्लीकरण की प्रक्रिया लगातार बढ़ती चली जाएगी जिससे खोल या कवच का निर्माण करने वाले प्रवाल या मूंगा जैसे समुद्रीय जीवों और इन पर निर्भर रहने वाले अन्य जीवों पर नकारात्मक प्रभाव पडे़गा।
दरअसल उन्नत भौतिक अवसंरचना (फिजीकल इन्फ्रास्ट्रक्चर) जलवायु परिवर्तन के विभिन्न खतरों जैसे बाढ़ ,खराब मौसम ,तटीय कटाव आदि से कुछ हद तक रक्षा कर सकती है। ज्यादातर विकासशील देशों में जलवायु परिवर्तन के प्रति सफलतापूर्वक अनुकूलन के लिए आर्थिक एवं प्रोद्यौगिकीय स्रोतों का अभाव है। यह स्थिति इन देशों में उस भौतिक अवसंरचना के निमार्ण की क्षमता में बाधा प्रतीत होती है जो कि बाढ़ ,खराब मौसम का सामना करने तथा खेती-बाड़ी की नई तकनीक अपनाने के लिए जरूरी है। दरअसल हरेक परिस्थितिक तंत्र के लिए अनुकूलन विशिष्ट होता है। गौरतलब है कि विभिन्न तौर-तरीकों से जलवायु परिवर्तन को नियंत्रित किया जा सकता है। इन तौर-तरीकों में ऊर्जा प्रयोग की उन्नत क्षमता ,वनों के काटने पर नियंत्रण और जीवाष्र्म इंधन का कम से कम इस्तेमाल जैसे कारक प्रमुख हैं।

दरअसल विकसित देशों (जिसमें अमेंरिका ,कनाडा ,आस्टेªलिया ,न्यूजीलैंड एवं पश्चिमी यूरोपीय देश शामिल हैं ) की जनसंख्या विश्व की जनसंख्या की 22 फीसदी है जबकि वे 88 फीसदी प्राकृतिक संसाधनों एवं 73 फीसदी ऊर्जा का इस्तेमाल करते हैं। साथ ही विश्व की 85 फीसदी आय पर उनका नियंत्रण है। दूसरी ओर विकासशील देशों की जनसंख्या विश्व की जनसंख्या की 78 फीसदी है जबकि वे 12 फीसदी प्राकृतिक संसाधनों एवं 27 फीसदी ऊर्जा का इस्तेमाल करते हैं।
उनकी आय विश्व की आय की सिर्फ 15 फीसदी ही है। इन सभी आंकड़ों से स्पष्ट हो जाता है कि विकसित देश कम जनसंख्या होने के बावजूद प्राकृतिक संसाधनों का अधिक इस्तेमाल कर अधिक प्रदूषण फैला रहे हैं। इसलिए उत्सर्जन कम करने की जिम्मेदारी भी उन्हें ही उठानी चाहिए। यह दुर्भाग्यपूर्ण ही है कि विकासशील देशों को भाषण देने से पहले विकसित देश स्वयं अपने गिरेबान में नहीं झांकते हैं। अब हमें यह समझना होगा कि सिर्फ नारों से पृथ्वी नहीं बचेगी। ग्लोबल वार्मिग एवं जलवायु परिवर्तन से उत्पन्न खतरों से निपटने के लिए विकसित देशों को विकासशील देशों के साथ कदम से कदम मिलाकर चलना होेगा नहीं तो पृथ्वी को प्राकृतिक आपदाओं के कहर से कोई नहीं बचा सकता।

Home / Prime / Opinion / नारों से नहीं रुकेगी प्राकृतिक आपदाएं

loksabha entry point

ट्रेंडिंग वीडियो