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कुंभकर्णी नींद टूटेगी?

इन इलाकों के लिए हमें मानवाधिकारों की बात करने वाले भी नहीं चाहिए।

Mar 14, 2018 / 09:53 am

सुनील शर्मा

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– गोविन्द चतुर्वेदी

नक्सलियों ने छत्तीसगढ़ में फिर हमारे नौ जवानों को मार डाला। आखिर कब तक चलेगा यह सिलसिला? कभी रुकेगा या नहीं? इसे रोकने वाली सरकारें कभी जागेंगी या फिर इसी तरह कुम्भकरणी नींद सोई रहेंगी? हादसा होने पर मातमी राग अलापने वाले राजनेताओं और सरकारों को कब इस बात का अहसास होगा कि जान खोने वाले जवानों के परिवारों पर क्या बीतती है?
बड़ी से बड़ी सहायता भी उस जवान को तो वापस नहीं ला सकती। सेना हो या सैन्य बल, उसमें भर्ती होने वाले हर जवान को पता होता है कि मौत ही उसकी आखिरी महबूबा है लेकिन यह शहादत शेर के जैसी नहीं होगी, वह सोच भी नहीं पाता होगा। नक्सलियों में दम हो और वे आमने-सामने आ कर लड़ें तो जवानों को भी मजा आए। पीठ पीछे वार करने वाला बहादुर नहीं कायर कहलाता है।
भले नक्सली हमारे ही भाई-बहिन हैं, भले कश्मीरी आतंकियों में से ज्यादातर हमारे अपने हैं लेकिन यदि उनमें देश और देशवासियों के लिए प्यार-मौहब्बत नहीं है तब देश ने क्या उनका ठेका ले रखा है? इससे पहले की ज्यादा देर हो जाए हमारी सरकारों को भी अब चेत जाना चाहिए। यह सही है कि गलत सरकारी नीतियां ही गरीब पिछड़े लोगों को हथियार उठाने पर मजबूर करती हैं।
छत्तीसगढ़ में तो आदिवासियों के जंगल और किसानों की भूमि खनन के लिए उद्योगपतियों को देना क्या न्यायपूर्ण था? वहां नक्सलियों से मुकाबले को ग्रामीणों को हथियारों का प्रशिक्षण तो दिया लेकिन रोजगार उपलब्ध नहीं कराए। पुलिसिया दमन ने ऐसे लोगों को ही विद्रोही बना दिया और वे नक्सलियों के चंगुल में फंस गए। सरकार को ऐसी नीतियां बनानी चाहिएं जिनमें पहले नागरिकों को रोजी, रोटी और सुरक्षा मिले। इसके लिए दृढ़ इच्छाशक्ति दिखानी होगी। नक्सलवाद हो या आतंकवाद इन पर नरमी से कुछ नहीं होगा।
छत्तीसगढ़ हो या कश्मीर, सब जगह जैसे को तैसा की नीति अपनानी होगी। अब वार्ताकारों की जरूरत नहीं है। इन इलाकों के लिए हमें मानवाधिकारों की बात करने वाले भी नहीं चाहिए। जो करें उसे शहीद होने वाले जवानों और उनके परिजनों के मानवाधिकारों की याद दिलानी चाहिए। क्या उनके कोई मानवाधिकार नहीं है, उनसे यह बंद कमरों में नहीं चौराहे पर पूछा जाना चाहिए? और इस सबके बीच सरकार को सरकार की तरह काम करना चाहिए। इन इलाकों के लोगों को सुधरने का सीमित समय दें और फिर भी नहीं सुधरें तो जो भाषा वे समझते हैं, उन्हें उसी में समझाएं। इसी में राष्ट्रहित है।

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