पिछले कुछ सालों में यूरोप में सामाजिक-आर्थिक और राजनीतिक परिवर्तन के मद्देनजर भारत और ऐसे ही अन्य देश यूरोप की ओर देख रहे हैं। प्रधानमंत्री
नरेंद्र मोदी की जर्मनी, रूस जैसे देशों की यात्रा और अन्य प्रस्तावित यात्राओं के संदर्भ में भारत और यूरोपीय देशों के बीच संबंधों में आए सुधार को एक शुरुआत मानना चाहिए। देखा जाए तो शीत युद्ध के बाद से यूरोपीय यूनियन (ईयू)अपने पुनर्निर्माण में लगा हुआ है। भारत भी कमोबेश इसी प्रक्रिया से गुजर रहा है।
रूस वैश्विक तो नहींं लेकिन एक नई यूरोपीय शक्ति के रूप में उभर रहा है। भारत के लिए चीन व पाकिस्तान के साथ रूस की बढ़ती नजदीकियां चिंता का विषय हैं। इसका असर यूरोप में भी दिखाई देता है। ब्रेग्जिट के उदय ने आज के ‘अर्थ केंद्रितÓ यूरोप को जन्म दिया है। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद यूरोपीय एकता की बात की जाए तो ब्रिटेन (यूके) की स्थिति एक ‘द्वीपÓ जैसी ही है, जो यूरोपीय देशों के एकजुट होने में बाधा डाल रहा है। यूरोप में हाल ही हुए कुछ बदलावों ने यूरोपीय देशों को इसका समसामयिक इतिहास बदलने पर मजबूर कर दिया है। ब्रेग्जिट की वजह से अमरीका के यूरोप व ईयू के साथ संबंध तनावपूर्ण भी हो सकते हैं।
दरअसल अमरीका पर निर्भर यूके, ईयू के बाकी देशों को खुद से अलग ही मानकर चलता है। वह अन्य यूरोपीय देशों को हमेशा तो अमरीका की बात मानने पर राजी नहीं कर सकता लेकिन यूके ने ईयू के कई ऐसे निर्णयों को बेअसर कर दिया जो अमरीका के पक्ष में नहीं थे। यूरोप लंबे समय से अमरीका की छाया से अलग होने के लिए संघर्षरत है। पर ऐसा हो नहीं सका, इसके पीछे बड़ा कारण इसकी अपनी ही कुछ मजबूरियां हैं। बावजूद इसके अमरीका संबंधी कुछ मुद्दे और चिंताओं के चलते ईयू देशों को अपने राजनीतिक निर्णयों की धार कमतर रखनी पड़ी है, क्योंकि उनसे आर्थिक व सैन्य परिदृश्य प्रभावित होने की आशंका बनी रहती है।
इस संदर्भ में रूस का उदाहरण देखें, सोवियत संघ के विघटन के बाद रूस ने अपने अंदरूनी मामलों को पश्चिमी यूरोप के मुकाबले बेहतर ढंग से संभाला। पुतिन के नेतृत्व में रूस की सरकार पिछले दो दशकों से यूरोपीय देशों में सबसे स्थायी सरकार है। यूरोप केंद्रित विदेश नीति और सामरिक सुरक्षा के संदर्भ में यह काफी महत्वपूर्ण है। सोवियत यूनियन के विघटन के बाद यूरोप के क्राइमिया प्रायद्वीप में रूस का हस्तक्षेप मास्को का पहला बड़ा अंतरराष्ट्रीय कदम था। सोवियत संघ के विपरीत पुतिनवादी रूस ने तेल की आपूर्ति बाधित करने की धमकी देकर पश्चिम यूरोप के आर्थिक प्रतिबंध में भी हस्तक्षेप करने की कोशिश की थी। उसी समय रूस को भी प्रतिबंधों का सामना करना पड़ा था। रूस की तुलना में यूरोप अपने अंदरूनी मसलों जैसे यूरो संकट, आर्थिक संकट और ब्रेग्जिट जैसी समस्याओं से लगातार जूझ रहा है।
भारत के आर्थिक हितों को भी इसका खमियाजा भुगतना पड़ा है। सोवियत संघ के अचानक हुए विघटन के बाद भी तो ऐसा ही हुआ था। उम्मीद है कि दोबारा जर्मन चांसलर निर्वाचित एंजेला मर्केल व फ्रांसीसी राष्ट्रपति एमानुएल मैक्रां अपने-अपने देशों में ही बदलाव को दिशा देंगे। अमरीकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप भी अपने सहयोगी यूरोपीय देशों की किसी प्रकार की मदद की स्थिति में दिखाई नहीं देतेे। हम देख रहे हैं कि अमरीका वैश्विक संदर्भ में अपनी नीतियों में लगातार बदलाव कर रहा है। मई के अंत में जब जर्मन चांसलर मर्केल अमरीकी राष्ट्रपति ट्रंप से मिली थीं तो उन्होंने कहा था कि यूरोप दूसरों पर निर्भर नहीं रह सकता। ट्रंप भी जर्मनी को निशाना बनाए हुए हैं।
हमारे प्रधानमंत्री
नरेंद्र मोदी मई में जब बर्लिन पहुंचे, उसी दिन ट्रंप ने जर्मनी को आड़े हाथों लिया। पेरिस जलवायु संधि से अमरीका के अलग होने की घोषणा कर ट्रंप ने भारत और चीन को चौंका दिया। यह स्पष्ट होता जा रहा है कि ट्रंप भले ही कठोर रवैया अपनाएं या कुछ अरुचिकर बोलें लेकिन वे उन मुद्दों पर बोल रहे हैं, जिन पर पिछले कई अमरीकी राष्ट्रपतियों ने कभी कुछ नहीं कहा। यह बात यूरोप के साथ-साथ भारत पर भी लागू होती है। यह और बात है कि शीत युद्ध के बाद भारत-अमरीका संबंध अच्छे ही रहे हैं, चाहे दोनों ही देशों में कोई भी सरकार रही हो।
जलवायु परिवर्तन पर पेरिस संधि से अलग होने का अमरीका का निर्णय एक झलक मात्र है। एक नया विश्व समूह तैयार हो रहा है, जिसमें अमरीका तो है ही, चीन और रूस के अलावा भारत जैसे देश मध्यवर्ती ताकत के रूप में उभरते नजर आ रहे हैं। भारत सामरिक आत्मनिर्भरता के रास्ते पर चलते हुए स्वयं को अमरीकानीत खेमे में शामिल कर रहा है। ट्रंप को भारत के साथ वैसे ही संबंध जारी रखने होंगे जैसे कि बुश व ओबामा के समय थे।
रूस भी न तो बोरिस येल्तसिन के जमाने वाला रहा और ना ही भारत अभी तक वैसा ही है। बात जब ‘वैश्विक मुद्राÓ की है तो भारत को तैयार रहना होगा। ज्यादा पुरानी बात नहीं है, जब श्रीलंका और मालदीव जैसे देशों ने वैश्विक विनिमय के लिए भारतीय मुद्रा चुनी थी। भारत को आने वाले दशकों में यूरोप पर नजर रखनी होगी। भारत के सामरिक संबंधों के लिए यह महत्वपूर्ण है।
एन.सत्यमूर्ति वरिष्ठ टिप्पणीकार